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रविवार, 3 मई 2009

मूल्यों को शूली मिली विश्वासों को जेल

मूल्यों को शूली मिली विश्वासों को जेल
ऋषि की तो आँखें गईं राजसुता का खेल

संस्कृति का दीपक बुझा हुई वर्तिका क्षीण
पश्चिम-मूषक ने पिया बिंदु-बिंदु सब तेल

अंधेरे के सींखचों में बंदी है चाँद
तारों के फल तोड़ता राहू चला गुलेल

रावण की नगरी बना आज राम का देश
कानूनों को कुचलती अपराधों की रेल

दूषित वे ही कर रहे ऊषा का कौमार्य
लोकतंत्र की रोशनी जिनकी बनी रखेल

कुर्सी के जबसे उगे पैंने - पैंने सींग
बहुत मरखनी हो गई डालो इसे नकेल (89)

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