बंधु, तुम्हारे शहर में फैला कैसा रोग ?
एक-दूसरे की तरफ भोंक रहे हैं लोग
राजनीति के धनुष से संप्रदाय के तीर
विश्वासों को वेधते कैसे रहें निरोग ?
अपने-अपने राग हैं अपने-अपने ढोल
सभी बेसुरे साज़ हैं नहीं ताल संयोग
यहाँ न कोई किसी का साथी या हमदर्द
संदेहों की यंत्रणा सभी रहे हैं भोग
'ऋषभदेव' हर गली में काले-काले साँप
श्वेत टोपियाँ पहन कर उगल रहे हैं रोग (84)
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