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रविवार, 3 मई 2009

बंधु, तुम्हारे शहर में फैला कैसा रोग ?

बंधु, तुम्हारे शहर में फैला कैसा रोग ?
एक-दूसरे की तरफ भोंक रहे हैं लोग

राजनीति के धनुष से संप्रदाय के तीर
विश्वासों को वेधते कैसे रहें निरोग ?

अपने-अपने राग हैं अपने-अपने ढोल
सभी बेसुरे साज़ हैं नहीं ताल संयोग

यहाँ न कोई किसी का साथी या हमदर्द
संदेहों की यंत्रणा सभी रहे हैं भोग

'ऋषभदेव' हर गली में काले-काले साँप
श्वेत टोपियाँ पहन कर उगल रहे हैं रोग (84)

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