लोकतंत्र : दस तेवरियां
[१]
अपने हक़ में वोट दिलाके, क्या उत्ती के पाथोगे
दिल्ली के दरबार में जाके, क्या उत्ती के पाथोगे
कुलपतियों की मेज़ तोड़के , लड़के डिस्को करते हैं
ऐसे में इस्कूल खुलाके, क्या उत्ती के पाथोगे
पाँच साल के बाद आज वे, अपने गाँव पधारे हैं
ऐसे नेता को जितलाके, क्या उत्ती के पाथोगे
लंबे कुर्तों के नीचे जो, पहने हैं राडार कई
उन यारों से हाथ मिलाके, क्या उत्ती के पाथोगे
बंदूकों से डरे हुए जो, सन्दूकों में भरे हुए
ऐसों को मुखिया बनवाके, क्या उत्ती के पाथोगे
शैतानों की नरबलियों में, शामिल है भगवान् यहाँ
भला यहाँ मन्दिर चिनवाके,क्या उत्ती के पाथोगे
मुझ गंवार का प्रश्न यही है, संसद से, सचिवालय से
लोक गंवाके तंत्र बचाके,क्या, उत्ती के पाथोगे [५१]
[२]
औंधी कुर्सी उस पर पंडा
पंडे के पीछे मुश्टंडा
गांधी टोपी, भगुआ कुरता
और हाथ में हिटलर डंडा
जनगण में बँट रहे निरंतर
नारे भाषण प्रोपेगंडा
मन्दिर की बुर्जी के ऊपर
लहराता दंगल का झंडा
कोड़े खाते, पिटते उबला
कैसे खून भला हो ठंडा [५२]
३. आदमकद मिल जाए कोई, दल-दल द्वार-द्वार भटका
लोकतंत्र की इस लंका में, हर कोई बावन गज़ का
सबके हाथों में झंडे हैं, सबके माथों पर टोपी
सबके होठों पर नारे हैं, पानी उतर चुका सबका
क्रूर भेड़िये छिपकर बैठे, नानी की पोशाकों में
'नन्हीं लाल चुन्नियों' का दम, घुट जाने की आशंका
ठीक तिजोरी के कमरे की, दीवारों में सेंध लगी
चोरों की टोली में शामिल, कोई तो होगा घर का
काले जादू ने मनुष्य बंदूकों में तब्दील किया
अब तो मोह छोड़ना होगा, प्राण और कायरपन का. (५३)
४.कुर्सी का आदेश कि अब से, मिलकर नहीं चलोगे
पड़ें लाठियाँ चाहे जितनी, चूं तक नहीं करोगे
लोकतंत्र के मालिक कहते, रोटी तभी मिलेगी
मान पेट को बडा, जीभ को रेहन जभी धरोगे
हाथ कटेंगे अगर कलम ने, सच लिखने की ठानी
करो फ़ैसला, झूठ सहो या सच के लिए मरोगे
गिरे दंडवत अगर भूमि पर, जीवित मर जाओगे
कायरता का मोल युगों तक पिटकर सदा भरोगे
यह गूंगों की भीड़ कि इसकी, वाणी तुम्हीं बनोगे
राजपथों से फुटपाथों के, हक़ के लिए लड़ोगे. (५४)
५.
मानचित्र को चीरती, मजहब की शमशीर
या तो इसको तोड़ दो, या टूटे तस्वीर
एल, ओ. सी. के दो तरफ़, एक कुटुम दो गाँव
छाती का छाला हुआ, वह सुंदर कश्मीर
आदम के कंधे झुके, कंधों पर भगवान्
उसके ऊपर तख्त है, उलटे कौन फकीर
सेवा का व्रत धार कर, धौले चोगे ओढ़
छेद रहे सीमा, सुनो! सम्प्रदाय के तीर
मुहर-महोत्सव हो रहा, पाँच वर्ष के बाद
जाति पूछकर बंट रही, लोकतंत्र की खीर
घर फूँका तब बन सकी, यारो! एक मशाल
हाथ लिए जिसको खड़ा बीच बज़ार कबीर (५५)
६.
माला-टोपी ने मिल करके कुछ ऐसा उपचार किया
भारत-पुत्रों ने भारत के पुत्रों का संहार किया
ऊंची बुर्जी के तलघर में ज्वाला का भण्डार किया
मेरे अमरित के सरवर में कटु विष का संचार किया
इसी नवम्बर में बस्ती में बैमौसम के बर्फ गिरी
पगली एक हवा ने सबको घर से बेघरबार किया
धूप चढ़े पर श्वेत कबूतर जभी घोंसले से निकला
बलि पूजा के काले पंजों ने गर्दन पर वार किया
परखनली में नेता भरकर कब से यह जनता बैठी
कुर्सी पर पधरे लोगों ने बहुत गुप्त व्यापार किया
विश्वासों के हत्यारों को जीने का अधिकार नहीं
यही फकीरा ने सोचा है जितनी बार विचार किया
लोकद्रोह के सब षड्यंत्रों के हम शीश तराशेंगे
लोकतंत्र की सान चढा़कर शब्द-शब्द हथियार किया (५६)
७.
लोक समर्थन के चेहरे पर काजल पोत दिया.
सहज समर्पण के चेहरे पर काजल पोत दिया
एक बार उसके चेहरे के दाग दिखाए तो.
उसने दर्पण के चेहरे पर काजल पोत दिया
राजमुद्रिका शकुंतला से भारी होती है.
शुभ्र तपोवन के चेहरे पर काजल पोत दिया
विवश कुन्तियाँ गंगा में कुलदीप सिराती हैं.
पूजन-अर्चन के चेहरे पर काजल पोत दिया
रिश्ते-नातों की मर्यादा के हत्यारों ने.
हर संबोधन के चेहरे पर काजल पोत दिया..
कुर्सीजीवी संतानों से राजघाट बोला.
तुमने तर्पण के चेहरे पर काजल पोत दिया (५७)
८.
हंस के हरेक जहर को पी जाय फकीरा
सच बोलता हुआ नहीं घबराय फकीरा
खिल जाय धूप गाँव में हो जाय सवेरा
जो रात के अंधेर में जग जाय फकीरा
आकाश का सुमन मिले यह सोच सूलियाँ
हर बार हर चुनाव में चढ़ जाय फकीरा
पदचाप लोकतंत्र की बस एक पल सुने
फिर पाँच साल तक तके मुँह बाय फकीरा
उसको न रक्तपात से तुम मेट सकोगे
सम्भव नहीं कि खौफ से मर जाय फकीरा
आजन्म तेज़ आंच में इतना तपा-गला
इस्पात की चट्टान में ढल जाय फकीरा
सबके नकाब नोंच दे बाज़ार में अभी
अपनी पे मेरे यार! जो आ जाय फकीरा (५८)
९.
हो न जाए मान में घाटा किसी के यों
सत्य कहने पर यहाँ प्रतिबन्ध है भैया
चोर को अब चोर कहना जुर्म है भारी
तस्करों का तख्त से सम्बन्ध है भैया
कलम सोने की सजी है उँगलियों में तो
हथकड़ी भूषित मगर मणिबंध है भैया
लोग इमला लिख रहे हैं भाषणों का ही
भाग्यलेखों का यही उपबंध है भैया
ज्योतिषीगण बाढ़ की चेतावनी दे दें!
ज्वार से ढहने लगा तटबंध है भैया ५९)
१०.
क्या पता था खेल ऐसे खेलने होंगे
रक्त-आँसू गूँथ पापड़ बेलने होंगे
कुर्सियों पर लद गया है बोझ नारों का
यार, ये विकलांग नायक ठेलने होंगे
भर गया बारूद मेरी खाल में इतना
अब धमाके पर धमाके झेलने होंगे. (६०)
--ऋषभ देव शर्मा