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शनिवार, 25 जून 2011

गूंगों के गाँव में अंधों का राज है

गूँगों के गाँव में अंधों का राज है
चिड़िया दबोचता पजों में बाज़ है

कमज़ोर हाथ वे पतवार खे रहे
लहरों में डोलता इनका जहाज़ है

लो चल पडी हवा छाती को चीरती
मौसम ने आज फिर बदला मिज़ाज है

अंबर में फिर कहीं बिजली चमक उठी
तांडव के राग में य' किसका साज़ है

गिद्धों की मच गई हर ओर चीत्कार
लगता है गिर रही बरगद प' गाज है     [123 ]

10 /11 /1981



गन्ने की पोर में विष कौन भर गया?

गन्ने की पोर में विष कौन भर गया
जिसने भी रस पिया पीते ही मर गया

कोल्हू में आ गया कर्जा उतारने
बस रह गया वहीं वापस न घर गया

बोगी में लादकर कुछ लोग चल दिए
पौ फटते काफिला मिल के नगर गया

चंपा के हाथ में हाँसी दरांतियाँ
अचपल को पलकटी देकर किधर गया

अब और तान कर कंकड़ न फेंकिए
लहरों के शोर से तालाब भर गया   [122 ]

10 /11 /1981  

सुनिए नई कमान लाया है शिकारी

सुनिए नई कमान लाया है शिकारी
खतरे में आसमान; आया है शिकारी

है धाँय धाँय धाँय या हाय हाय हाय
बन करके कोहराम छाया है शिकारी

वे बाज़ बच गए उत्सव में जिन्होंने
पंजों से रक्त-राग गाया है शिकारी

आँसू के आचमन, चीखों के मंत्र हैं
निर्दोष-रक्त में न्हाया है शिकारी

कोंपल प' चक्रधर जो एक तृण उगा
वह चीरता आता, माया है शिकारी  [121]

 09 /11 /1981  

रविवार, 12 जून 2011

गली गली में शोर है

गली गली में शोर है
कुर्सी वाला चोर है

अंग अंग में पीव, यों
कसक रहा हर पोर है

यह लो, खतरा आ गया
अंबर में घनघोर है

बीच शहर में आ चुका
साँप निगलने मोर है

खून पूर्व में छा रहा
होने वाली भोर है    [120]

6 /11 /1981  

आप कितने पाप लाए

आप कितने पाप लाए
आज तक गिनने न आए

झील खारी हो गई है
आप हैं जब से नहाए

आप थे पत्थर, सुमन ने
व्यर्थ ही आँसू बहाए

आपके होठों हमारा
खून है, छुटने न पाए

आप अब संन्यास ले लें
आग घर में लग न जाए     [119]

6 /11 /1981

ये बड़े जो दीखते हैं

ये बड़े जो दीखते हैं
खून से हम सींचते हैं

एक जुगनू छोड़कर वे
यह अँधेरा चीरते हैं

चीख कर दो चार नारे
शून्य मन  को जीतते हैं

एक विप्लव के विपल में
दमन के युग बीतते हैं

संयमी हम ठोकरें खा
नियम द्रोही सीखते हैं.    [118]

6/11/1981 

दीप से छत जल रही है

दीप से छत जल रही है
आस्था हर छल रही है

गिरगिटी काया पहन कर
रोशनी खुद छल रही है

आँख में आहत सपन की
मौन पीड़ा पल रही है

भूमि के रस कलश सारे
धूप पीती चल रही है

मानसूनी यह हवा अब
सूर्य को क्यों खल रही है

काट दो इस देह से, जो
एक बाजू गल रही है    [117]

6/11 /1981