ये बड़े जो दीखते हैं
खून से हम सींचते हैं
एक जुगनू छोड़कर वे
यह अँधेरा चीरते हैं
चीख कर दो चार नारे
शून्य मन को जीतते हैं
एक विप्लव के विपल में
दमन के युग बीतते हैं
संयमी हम ठोकरें खा
नियम द्रोही सीखते हैं. [118]
6/11/1981
खून से हम सींचते हैं
एक जुगनू छोड़कर वे
यह अँधेरा चीरते हैं
चीख कर दो चार नारे
शून्य मन को जीतते हैं
एक विप्लव के विपल में
दमन के युग बीतते हैं
संयमी हम ठोकरें खा
नियम द्रोही सीखते हैं. [118]
6/11/1981
1 टिप्पणी:
हमारे खून-पसीने ही ने तो इन्हें बड़ा बनाया है॥
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