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शुक्रवार, 8 मई 2009

पुरखों ने कर्ज लिया, पीढ़ी को भरने दो

पुरखों ने कर्ज लिया, पीढ़ी को भरने दो
अपराधी हाथों की, जासूसी करने दो

कर रहा हवा दूषित, भर रहा नसों में विष
मत तक्षक को ऐसे, उन्मुक्त विचरने दो

आया था लोकतंत्र, वर्षों से सुनते हैं
छेदों से भरी-भरी, नौका यह तरने दो

यातना-शिविर जिसने, यह शहर बनाया है
पापों का धर्मपिता , मुख आज उघरने दो

जनगण के प्रहरी बन, सड़कों पर निकलो तुम
लो लक्ष्य बुर्जियों के, द्रोही सब मरने दो [107]

जलती बारूद बनो अब बुर्जों पर छाओ रे

जलती बारूद बनो अब बुर्जों पर छाओ रे
हर बुलडोज़र के आगे पर्वत बन जाओ रे

इन खेतों में आँगन को यूँ कब तक बाँटोगे?
मंदिर में सिज़्दे, मस्जिद में प्रतिमा लाओ रे

ये टूटे दिल के नग्मे गाने से क्या होगा?
ज़ालिम मीनारें टूटें कुछ ऐसा गाओ रे

'गा' गोली, 'बा' बंदूकें, 'खा' से खून-पसीना
'रा' रोटी, 'आ' आग और 'ला' लहू पढ़ाओ रे

अब और न तश्तरियों में यह ज़िन्दा मांस सजे
रोटी के हक़ की ख़ातिर तलवार उठाओ रे [106]

रविवार, 3 मई 2009

कच्ची नीम की निंबौरी, सावन अभी न अइयो रे

कच्ची नीम की निंबौरी, सावन अभी न अइयो रे
मेरा शहर गया होरी, सावन अभी न अइयो रे

कर्ज़ा सेठ वसूलेगा, गाली घर आकर देगा
कड़के बीजुरी निगोरी, सावन अभी न अइयो रे

गब्बर लूट रहा बस्ती, ठाकुर मार रहा मस्ती
है क्वाँरी छोटी छोरी, सावन अभी न अइयो रे

चूल्हा बुझा पड़ा कब का, रोजा रोज़ाना सबका
फूटी काँच की कटोरी, सावन अभी न अइयो रे

छप्पर नया बना लें हम, भर लें सभी दरारें हम
मेघा करे न बरजोरी, सावन अभी न अइयो रे

खुरपी ले आए धनिया, जग जाएँ गोबर-झुनिया
हँसिया ढूँढ़ रही गोरी, सावन अभी न अइयो रे (105)

हो गए हैं आप तो ऋतुराज होली में

हो गए हैं आप तो ऋतुराज होली में
वे तरसते रंग को भी आज होली में

काँख में खाते दबाए आ गया मौसम
खून से वे भर रहे हैं ब्याज होली में

चौक में है आज जलसा भूल मत जाना
भूख की आँतें बनेंगी साज होली में

हर गली उद्दण्डता पर उतर आई है
खुल न जाए राजपथ का राज़ होली में

कब कई प्रह्लाद लेंगे आग हाथों पर ?
कब जलेगी होलिका की लाज होली में ? (104)

हादसे अब घटने चाहिएँ

हादसे अब घटने चाहिएँ
यार ! बादल छँटने चाहिएँ

कुर्सी मरखनी हो गई है
इसके सींग कटने चाहिएँ

पढ़ो ‘रा’ से रोटी, रथ नहीं
श्रम के गीत रटने चाहिएँ

भरे गोदाम से अनाज के
पहरे सभी हटने चाहिएँ

‘जनगण की छातियों में दफ़न
ज्वालामुखी फटने चाहिएँ (103)

हर दफ्तर में एक बड़ी सी, कुर्सी पाई जाती है

हर दफ्तर में एक बड़ी सी, कुर्सी पाई जाती है
जिसके आगे बड़े-बड़ों की, कमर झुकाई जाती है

अंग्रेज़ों की बात नहीं है, यह अपना ही शासन है
सुनो ! पेट की ख़ातिर रेहन, रीढ़ धराई जाती है

मछुआरा हर बॉस यहाँ पर, बाँसी-काँटा थामे है
रोज़ी का संकट भारी है, देह भुनाई जाती है

ठाली अफ़सर, खाली दफ्तर, घूम-घूमकर देखा है
गाल बजाए जाते हैं या, जय-जय गाई जाती है

सहने की सीमा होती है, कितना और सहें, यारो!
क्यों जनता कुलवधू बिचारी , मौन सताई जाती है

उठो, सत्य के पहरेदारो ! तोड़ झूठ के मयखाने
सौ-सौ संगीनें उठने पर, कलम उठाई जाती है (102)

हमलावर शेरों को चिंता में डाला है

हमलावर शेरों को चिंता में डाला है
हिरनी की आँखों में प्रतिशोधी ज्वाला है

सागर में ज्वार उठें, लहरें तेवर बदलें
अवतरित हो रही जो, यह जागृति-बाला है

पृष्ठों पर आग छपी, सनसनी हाशियों पर
अख़बारों ने संध्या-संस्करण निकाला है

सदियों ने बहुत सहा शूली चढ़ता ईसा
हाथों में कील ठुकी, होठों पर ताला है

सड़कों पर उतरी है सुकराती-भीड़ यहाँ
मीरा-प्रह्लादों को प्यारा यह प्याला है (101)

हटो, यह रास बंद करो

हटो, यह रास बंद करो
हास-परिहास बंद करो

यह कलम है, खुरपी नहीं
छीलना घास बंद करो

गूँजती युद्ध की बोली
खेलना ताश बंद करो

भूख का इलाज बताओ
यार! बकवास बंद करो (100)

सुनो, बग़ावत कर रहे अब सरसों के खेत

सुनो, बग़ावत कर रहे अब सरसों के खेत
पीली-पीली आग नव जागृति का संकेत

जो फसलों को रौंदते, फिरते अब तक प्रेत
गेहूँ की बाली प्रखर गुभ-चुभ करें अचेत

लोमड़ियाँ बसती रहीं, खोद मटर के खेत
फलियों! तुम इस बार वे, खंडित करो निकेत

पानी उनके घर गया, खेत हो गये रेत
‘होले’ से गोले बने, चने श्याम औ’ श्वेत

करवट ले खलिहान ही, बाली-फूल समेत
मौसम कहे पुकार कर, रामचेत! अब चेत (99)

सभी रंग बदरंग हैं कैसे खेलूँ रंग

सभी रंग बदरंग हैं कैसे खेलूँ रंग
बौराया तेरा शहर घुली कुएँ में भंग

पूजाघर के पात्र में राजनीति के रंग
या मज़हब के युद्ध हैं या कुर्सी की जंग

कंप्यूटर पर बैठकर उड़े जा रहे लोग
मेरे काँधे फावड़ा मुझे न लेते संग

होली है पर चौक में नहीं तमाशा एक
कब से गूँगी ढोलकें बजी न कब से चंग

इनके महलों में रचा झोंपड़ियों का खून
बुर्जी वाले चोर हें , चीखा एक मलंग

ऐसी होली खेलियो खींच मुखौटे , यार!
असली चेहरा न्याय का देख सभी हों दंग (98)

सबका झंडा एक तिरंगा होने दो

सबका झंडा एक तिरंगा होने दो
घायल नक्शे को अब चंगा होने दो

यह राजरोग कुर्सी ने फैलाया है
अब नहीं कहीं भी यूँ दंगा होने दो

बनो सपेरे, नाग इशारे पर नाचें
मत जयचंदों को दोरंगा होने दो

मस्जिदें तुम्हारे चरणों पर घूमेंगी
मुल्ला की फ़ितरत को नंगा होने दो

क्या कहा भगीरथ ? शंकर हो जाओगे
तुम ज़रा पसीने को गंगा होने दो (97)

शोलों से भरी हुई शब्दों की झोली हो

शोलों से भरी हुई शब्दों की झोली हो
यह समय समर का है, बम-बम की बोली हो

कुर्सी के होंठों पर जनता का लोहू है
माथे पर चाहे ही चंदन हो, रोली हो

संसदी बिटौरे में वोटों के उपले हैं
जाने कब आग लगे ,जाने कब होली हो

कुर्ते का, टोपी का कोई विश्वास नहीं
क्या पता कि वर्दी (खादी) में ,चोरों की टोली हो

फूलों के कंधों पर बंदूकें लटका दो
शायद माली पर भी खंजर या गोली हो (96)

शहर तुम्हारा ? हमने देखा शहर तुम्हारा

शहर तुम्हारा ? हमने देखा शहर तुम्हारा
शासक-चोर, लुटेरा-नेता शहर तुम्हारा

संगीनों की नोंक मिली जिस ओर गए हम
बख्तरबंद पुलिस का पहरा शहर तुम्हारा

फुटपाथों को चना-चबेना मिल न सका पर
आदमखोर हुआ सब खाता शहर तुम्हारा

देह किसी ने बेची, कोई बच्चे बेचे
बदले में ठोकर ही देता शहर तुम्हारा

गाँवों के काँधे चिन दीं ऊँची मीनारें
लें अँगड़ाई तभी गिरेगा शहर तुम्हारा

की मनमानी भर आँखों में मोम सभी की
सूर्य उगा है अब पिघलेगा शहर तुम्हारा (95)

रो रही है बाँझ धरती , मेह बरसो रे

रो रही है बाँझ धरती , मेह बरसो रे
प्रात ऊसर, साँझ परती, मेह बरसो रे

सूर्य की सारी बही में धूपिया अक्षर
अब दुपहरी है अखरती , मेह बरसो रे

नागफनियाँ हैं सिपाही , खींच लें आँचल
लाजवंती आज डरती , मेह बरसो रे

राजधानी भी दिखाती रेत का दर्पण
हिरनिया ले प्यास मरती , मेह बरसो रे

रावणों की वाटिका में भूमिजा सीता
शीश अपने आग धरती , मेह बरसो रे (94)

राजपथों पर कोलाहल है, संविधान की वर्षगाँठ है

राजपथों पर कोलाहल है, संविधान की वर्षगाँठ है
गली-गली में घोर गरल है, संविधान की वर्षगाँठ है

पैने हैं नाखून उन्हीं के, मुट्ठी में क़ानून उन्हीं के
उन्हें विखंडन बहुत सरल है, संविधान की वर्षगाँठ है

शासन अनुशासन बेमानी, मंदिर-मस्ज़िद की मनमानी
रक्तपात की नीति सफल है, संविधान की वर्षगाँठ है

घर में आग लगाय जमालो, खड़ी-खड़ी मुस्काय जमालो
शांतिचक्र ध्वज आज विकल है, संविधान की वर्षगाँठ है

कब तक जनता सहे अकेली, मरती खपती रहे अकेली
जनपथ से उमड़ा दलबल है, संविधान की वर्षगाँठ है

कुर्सी का उपदंश बढ़ चुका, वोट-नोट का वंश बढ़ चुका
शल्य-चिकित्सा केवल हल है, संविधान की वर्षगाँठ है (93)

रक्त का उन्माद हैं ये, युद्ध की बातें

रक्त का उन्माद हैं ये, युद्ध की बातें
मृत्यु का संवाद हैं ये, युद्ध की बातें

एक धरती, एक राजा, लाख जौहर पर
विजय का अपवाद हैं ये, युद्ध की बातें

हथकड़ी बेड़ी पहन लो या मरो बम से
दमन का अनुवाद हैं ये, युद्ध की बातें

पाक बांग्ला चीन बर्लिन, बाड़-दीवारें
खेत घर आबाद हैं ये, युद्ध की बातें

जो बड़े, वे कर रहे, व्यापार शस्त्रों का
भेड़िया आस्वाद हैं ये, युद्ध की बातें

भेद को देते हवा जो, थाम लो कालर !
मुक्ति पर अपराध हैं ये, युद्ध की बातें (92)

यूँ जवानी खो रहा है आदमी

यूँ जवानी खो रहा है आदमी
जानवर ही हो रहा है आदमी

पेट की खातिर सुनो इस धूप में
आदमी को ढो रहा है आदमी

रोशनी को क़त्ल करके, रात में
दाग़ अपने धो रहा है आदमी

पीढ़ियाँ फिर-फिर उगेंगी जूझती
ख़ून अपना बो रहा है आदमी

अब सृजन के गीत गाओ, अग्निकण!
फिर जगे जो सो रहा है आदमी (91)

मौन बैठे तोड़कर निब जज सभी

मौन बैठे तोड़कर निब जज सभी
लाल स्याही में रँगे काग़ज़ सभी

रूप ने विश्वास को छल कर कहा
प्यार में, व्यापार में जायज सभी

आसनों पर बैठ टीका वेद की
कर रहे जो जन्म से जारज सभी

कल्पना जिसने सजाया था गगन
पहन मृगछाला चली वह तज सभी

जाल को मछली निगलने को चली
जागरण का देख लो अचरज सभी

अब कला के देखिए तेवर नए
सादगी ने जीत ली सजधज सभी (90)

मूल्यों को शूली मिली विश्वासों को जेल

मूल्यों को शूली मिली विश्वासों को जेल
ऋषि की तो आँखें गईं राजसुता का खेल

संस्कृति का दीपक बुझा हुई वर्तिका क्षीण
पश्चिम-मूषक ने पिया बिंदु-बिंदु सब तेल

अंधेरे के सींखचों में बंदी है चाँद
तारों के फल तोड़ता राहू चला गुलेल

रावण की नगरी बना आज राम का देश
कानूनों को कुचलती अपराधों की रेल

दूषित वे ही कर रहे ऊषा का कौमार्य
लोकतंत्र की रोशनी जिनकी बनी रखेल

कुर्सी के जबसे उगे पैंने - पैंने सींग
बहुत मरखनी हो गई डालो इसे नकेल (89)

मिलीं शाखें गिलहरी को इमलियों की

मिलीं शाखें गिलहरी को इमलियों की
छिन गईं लेकिन छटाएँ बिजलियों की

यह व्यवस्था है कि फेंको लेखनी को
चाहते हो खैरियत यदि उँगलियों की

न्याय को बंधक बनाकर बंदरों का
वे मिटाएँगे लड़ाई बिल्लियों की

आदमी की प्यास के दो होंठ सिलकर
प्राण रक्षा वे करेंगे मछलियों की

गीत के मेले लगाती राजधानी
चीख पिसती बजबजाती पसलियों की

आग सोई, लकड़ियाँ सीली हुई हैं
है ज़रूरत और सूखी तीलियों की (88)

मंचों को छोड़ो सड़कों पे उतर आओ

मंचों को छोड़ो सड़कों पे उतर आओ
ये मुजरे छोड़ो अब नया तेवर गाओ

वे तो हमेशा छीनते रहे हैं रोटी
उठो, हक़ हासिल करो, हाथ मत फैलाओ

सबसे बड़ा देव है महनतकश आदमी
अंधी कुटी में आस्था के दीप जलाओ

बिखर न जाय यह टुकड़ा-टुकड़ा आसमान
लरजते शीशे को टूटने से बचाओ

कौन रोकेगा तुम्हें ‘निराला’ बनने से
मिमियाना छोड़ो तुम शेर हो गुर्राओ (87)

बोला कभी तो बोल की मुझको सज़ा मिली

बोला कभी तो बोल की मुझको सज़ा मिली
जो चुप रहा तो मौन की मुझको सज़ा मिली

मैं पंक्ति में पीछे खड़ा विराम की तरह
ज़ाहिर है, तेज दौड़ की मुझको सज़ा मिली

की थी दुआ तो शहर में अज्ञातवास की
मैं सैर करूँ भीड़ की मुझको सज़ा मिली

गाईं तो मैंने आपकी प्रशस्तियाँ मगर
आलोचकीय जीभ की मुझको सज़ा मिली

मैंने कहा कि हे प्रभो ! मैं केंचुआ बनूँ
बदले में सीधी रीढ़ की मुझको सज़ा मिली (86)

बाँस का झुरमुट बजाता सीटियाँ

बाँस का झुरमुट बजाता सीटियाँ
यह हवा सुलगा रही अंगीठियाँ

बुर्ज पर जो चढ़ गए, अंधे हुए
हैं हमारे खून से तर सीढ़ियाँ

कुछ, सिगारों-सिगरटों से पूछतीं
कान में खोंसी हुईं ये बीड़ियाँ

आपने बंजर बनाई जो धरा
जन्मती वह कीकरों की पीढ़ियाँ

पर्वतों पर है धमाकों का समाँ
घाटियों में घनघनाती घंटियाँ (85)

बंधु, तुम्हारे शहर में फैला कैसा रोग ?

बंधु, तुम्हारे शहर में फैला कैसा रोग ?
एक-दूसरे की तरफ भोंक रहे हैं लोग

राजनीति के धनुष से संप्रदाय के तीर
विश्वासों को वेधते कैसे रहें निरोग ?

अपने-अपने राग हैं अपने-अपने ढोल
सभी बेसुरे साज़ हैं नहीं ताल संयोग

यहाँ न कोई किसी का साथी या हमदर्द
संदेहों की यंत्रणा सभी रहे हैं भोग

'ऋषभदेव' हर गली में काले-काले साँप
श्वेत टोपियाँ पहन कर उगल रहे हैं रोग (84)

पाँव का कालीन उनके हो गया मेरा शहर

पाँव का कालीन उनके हो गया मेरा शहर
कुर्सियों के म्यूज़ियम में खो गया मेरा शहर

हर गली-बाज़ार चोरों के हवाले छोड़कर
भोर से अण्टा चढ़ाकर सो गया मेरा शहर

पीठ पर नीले निशानों की उगी हैं बस्तियाँ
बोझ कितने ही गधों का ढो गया मेरा शहर

बाँसुरी की धुन बजाते घूमते नीरो कई
जनपथों पर भीड़ चीखी - लो गया मेरा शहर

चीड़ के ऊँचे वनों में फैलती यों सनसनी
जब जगा, कुछ आग के कण बो गया मेरा शहर (83)

नाग की बाँबी खुली है आइए साहब

नाग की बाँबी खुली है आइए साहब
भर कटोरा दूध का भी लाइए साहब

रोटियों की फ़िक्र क्या है ? कुर्सियों से लो
गोलियाँ बँटने लगी हैं खाइए साहब

टोपियों के हर महल के द्वार छोटे हैं
और झुककर और झुककर जाइए साहब

मानते हैं उम्र सारी हो गई रोते
गीत उनके ही करम के गाइए साहब

बिछ नहीं सकते अगर तुम पायदानों में
फिर क़यामत आज बनकर छाइए साहब (82)

धार लगाकर सब आवाजे़ं आरी करनी हैं

धार लगाकर सब आवाजे़ं आरी करनी हैं
एक बड़े जलसे की अब तैयारी करनी है

फुलझड़ियों से खेल रहे वे आग नहीं जाने
अँधियारे तहख़ानों में बमबारी करनी है

ब्लैक-होल डसते जाते हैं सूरजमुखियों को
अस्थिचूड़ देकर पीढ़ी उजियारी करनी है

हर कुर्सी पर जमे हुए हैं मार्कोस, यारो !
न्यायालय में नंगी हर मक्कारी करनी है (81)

देवताओं को रिझाया जा रहा है

देवताओं को रिझाया जा रहा है
पर्व कुर्सी का मनाया जा रहा है

भोर फाँसी की गई आ पास शायद
क़ैदियों को जो सजाया जा रहा है

आदमी की बौनसाई पीढ़ियों को
रोज़ गमलों में उगाया जा रहा है

जाम रखकर तलहथी पर भूख की अब
जागरण को विष पिलाया जा रहा है

पारदर्शी तीर धर लो शिंजिनी पर
व्यूह रंगों का बनाया जा रहा है (80)

टोपी वाले नटवर नागर ! मेरे तुम्हें प्रणाम

टोपी वाले नटवर नागर ! मेरे तुम्हें प्रणाम
वर्दी वाले तेरे चाकर, मेरे तुम्हें प्रणाम

उनके पास न कानी कौड़ी, फूटा नहीं छदाम
तुम सारे रत्नों के सागर, मेरे तुम्हें प्रणाम

उनकी तलवारों का पानी, फीका नहीं हुजूर
तुम बारूदी अकबर-बाबर, मेरे तुम्हें प्रणाम

दीवारों पर लिखे उन्होंने, युद्ध-क्रांति-संग्राम
पढ़े नहीं तुमने दो आखर, मेरे तुम्हें प्रणाम

वह देखो उस पार जल उठी, एकाएक मशाल
डूब रही है भरकर गागर, मेरे तुम्हें प्रणाम (79)

टॉमियों औ' रूबियों को टॉफियाँ वे बाँटते हैं

टॉमियों औ' रूबियों को टॉफियाँ वे बाँटते हैं
जबकि कल्लू और बिल्लू काग़ज़ों को चाटते हैं

रक्त पीकर पल रही है रक्तजीवी एक पीढ़ी
जबकि अपनी देह की हम आप हड्डी काटते हैं

हर हवा की बूँद भी चढ़ती हमारी कापियों में
जबकि वे सारा गगन ही डस गए पर नाटते हैं

मौन हम निर्दोष कब तक मार कोड़ों की सहेंगे
जबकि दबती आह पर वे शोषितों को डाँटते हैं

शांति के उपदेश हैं इस गाँव में अब तो निरर्थक
जबकि संयम वे हमारा कैंचियों से छाँटते हैं (78)

झुग्गियों को यों हटाया जा रहा है

झुग्गियों को यों हटाया जा रहा है
शहर को सुंदर बनाया जा रहा है

बँट रही हैं पट्टियाँ मुँह बाँधने को
मुक्ति का उत्सव मनाया जा रहा है

हर क़लम की जीभ धरकर नींव में अब
सत्य का मंदिर चिनाया जा रहा है

भीड़ गूँगों की जमा है गोलघर में
पाठ भाषा का पढ़ाया जा रहा है

तीर को कुछ और पैना क्यों न कर लें !
नित नया चेहरा चढ़ाया जा रहा है

आख़िरी महफिल सजी है आज उनकी
शब्द उँगली पर नचाया जा रहा है (77)

जितना है खुशपोश पलँग

जितना है खुशपोश पलँग
उतना ही बेहोष पलँग

जागा सुन उद्घोष पलँग
सह न सका आक्रोश पलँग

निर्दोषों का खून हुआ
साक्षी है खामोश पलँग

खाटों को गाली बकता
मय पीकर मदहोश पलँग

जिसके माथे मुकुट बँधे
भरे उसे आगोश पलँग

मुखिया आदमखोरों का
कब करता संतोष पलँग

साफ बरी होता मढ़कर
औरों के सिर दोष पलँग

यार ! हथौड़ों से तोड़ें
अपराधों का कोष पलँग (76)

चौराहों पर पिटी डौंड़ियाँ, गली-गली विज्ञापन है

चौराहों पर पिटी डौंड़ियाँ, गली-गली विज्ञापन है
कफ़न-खसोटों की बस्ती में ‘शैव्या’ का अभिनंदन है

आज आदमी से नागों ने यारी करने की ठानी
सँभल परीक्षित ! उपहारों में ज़हरी तक्षक का फन है

आश्वासन की राजनीति ने लोकरीति से ब्याह रचा
मित्र ! श्वेत टोपी वालों का स्याही में डूबा मन है

ये बिछुए, पाजेब, झाँझरें और चूड़ियाँ लाल-हरी
दुलहिन का शृंगार नहीं है, परंपरागत बंधन है

सड़कों के घोषणापत्र में बटिया का उल्लेख हुआ
लगता है, कुछ षड्यंत्रों में व्यस्त हुआ सिंहासन है (75)

चोरों का सम्मान, आजकल मेरे भैया

चोरों का सम्मान, आजकल मेरे भैया
छेड़ नया अभियान, आजकल मेरे भैया

आतंकी भस्मासुर पीछे पड़ा हुआ है
ख़तरे में भगवान, आजकल मेरे भैया

साँपों के मुँह में बच्चों का खून लग गया
डरा हुआ ईमान, आजकल मेरे भैया

उतरे आदमखोर, गमकती अमराई में
लेकर तीर कमान, आजकल मेरे भैया

अवतारों की राह जोहते, मुँह को बाए
गीता और कुरान, आजकल मेरे भैया

तिमिर तोड़ने की तकनीकें अंध पिता से
पूछ रही संतान, आजकल मेरे भैया

फसल बचानी है ज़हरीले नख दंतों से
बाँधो एक मचान, आजकल मेरे भैया (74)

घर-दुकान बंद है

घर-दुकान बंद है
खानदान बंद है

नारे खुद बोलते
हर ज़ुबान बंद है

घंटे क्यों मौन हैं
क्यों अज़ान बंद है

कुर्तों की जेब में
संविधान बंद है

कुर्सी-संकेत पर
नव विहान बंद है

कीर्तिगान हो रहे
राष्ट्रगान बंद है

सिक्कों की जेल में
क्या जवान बंद है ?

फूटो ज्वालामुखी!
कि दिनमान बंद है (73)

गाँव, घर, नगर-नगर भूमि की पुकार

गाँव, घर, नगर-नगर भूमि की पुकार
ताल, सर, लहर-लहर भूमि की पुकार

सींचें जो खेत में बूँद - बूँद गात
और ना पिएँ ज़हर भूमि की पुकार

नींव में ग़रीब-रक्त और ना चुए
साँझ प्रात दोपहर भूमि की पुकार

भूख के उरोज पर सेठ या मुनीम
और ना धरें नज़र भूमि की पुकार

और की हरे न धूप, छाँव बरगदी
दूर-दूर फैल कर , भूमि की पुकार

नींद की ग़ज़ल नहीं आज मित्रवर!
जागृति के छंद भर भूमि की पुकार (72)

गाँव, खेतों-क्यारियों में बोलता है

गाँव, खेतों-क्यारियों में बोलता है
चीख में, सिसकारियों में बोलता है

पड़ गईं कितनी दरारें, आज नक्शा
तीन-रंगी धारियों में बोलता है

आपका बाजार लुटना है जरूरी
मांस - ज़िंदा, लारियों में बोलता है

दूध मत छीनो, दिखाकर झुनझुना यूँ
पालना किलकारियों में बोलता है

आपका चेहरा रँगेगा खून मेरा
आपकी पिचकारियों में बोलता है (71)

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

गलियों की आवाज़ आम है


गलियों की आवाज़ आम है

गलियों की आवाज़ आम है , माना ख़ास नहीं होगी
हीरे की यह आब , घिसो तुम, घिसकर काँच नहीं होगी

जनता के मुँह पर अंगारे , वर्दी वालों ने मारे
कुर्सी वालों का कहना है , इसकी जाँच नहीं होगी

सरकारी मिल में कुछ ईंधन, ऐसा ढाला जाएगा
चमक-दमक तो लूक-लपट सी, लेकिन आँच नहीं होगी

नाच रहा क़ानून जुर्म की महफ़िल में मदिरा पीकर
उन्हें बता दो : किंतु दुपहरी , तम की दास नहीं होगी

जनमेजय ने एक बार फिर , नागयज्ञ की ठानी है
नियति धर्मपुत्रों की फिर से , अब वनवास नहीं होगी [ ७० ]

कुर्सी बनी कुलदेवता

कुर्सी बनी कुलदेवता
कुर्सी बनी कुल - देवता इस खानदान की
तर हैं हमारे रक्त से सीढ़ी मकान की

वधुएँ हुईं कुलटा यहाँ बचकर चलो ज़रा
छल ले न तुमको भी कहीं रौनक दुकान की

नारे लगाएँ आप भी या मौन हो रहें
क्या है ज़रूरी सोचिए रक्षा ज़ुबान की?

लिखने को लिख रहे सभी दिन - रात एक कर
कितने लिखेंगे किंतु यह पीड़ा विधान की?

वे आँख में कुणाल की तकुए गुभो (पिरो) रहे
तुम खींच लो अब कान तक डोरी कमान की

हर बुर्ज पर बैठी हुई , दूती विनाश की
तनने दो यूँ गुलेल अब , हर इक मचान की [ ६९ ]

कुर्ते की जेबें खाली हैं


कुर्ते की जेबें खाली हैं






कुर्ते की जेबें खाली हैं , औ' फटा हुआ है पाजामा
इनको न भिखारी समझो तुम ,ये करने निकले हंगामा

धक्के-मुक्के, गाली-गुस्सा ,खा-पीकर इतने बड़े हुए
फुसला न सकोगे इनको तुम, दिखला करके चंदामामा

दिल्ली वाले बाजीगर जी! अब जाग उठा है शेषनाग
भागो, छोड़ो यह बीन-शीन, यह टोपी-बालों का ड्रामा [ ६८ ]