युधिष्ठिरी-यात्रा के नग हैं
व्रण-छालों से छाए पग हैं
रोती रहे न्याय की पुस्तक
कुर्सी के क़ानून अलग हैं
बाज़ों के पंजे घातक, पर
बागी आज युयुत्सु विहाग हैं
तूफानी धाराएँ मचलीं
कागज़ की नावें डगमग हैं
शंखनाद गूँजा, मंदिर की
दीवारों के कान सजग हैं [127]
20 नवंबर 1981
व्रण-छालों से छाए पग हैं
रोती रहे न्याय की पुस्तक
कुर्सी के क़ानून अलग हैं
बाज़ों के पंजे घातक, पर
बागी आज युयुत्सु विहाग हैं
तूफानी धाराएँ मचलीं
कागज़ की नावें डगमग हैं
शंखनाद गूँजा, मंदिर की
दीवारों के कान सजग हैं [127]
20 नवंबर 1981