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रविवार, 19 दिसंबर 2010

गिर रहा फिर आज पानी


गिर रहा फिर आज पानी 
ठिर रही है राजधानी 

मोड़कर जलधार भारी 
दी डुबो बस्ती पुरानी 

हम हुए बेघर प्रलय में 
बच गए वे खानदानी 

हर तरफ खारा समंदर 
प्यास पानी प्यास पानी 

रक्तजीवी रक्त माँगे 
क्या बुढ़ापा क्या जवानी 

गाँव का सिर काटकर भी 
शहर की कुर्सी बचानी 

बाँधकर पत्थर डुबो दी 
सत्य की अंतिम निशानी 

मृत्यु की लहरें उफनतीं 
जाग री सोई भवानी! [108] 

4/11 /2009 .