हर दफ्तर में एक बड़ी सी, कुर्सी पाई जाती है
जिसके आगे बड़े-बड़ों की, कमर झुकाई जाती है
अंग्रेज़ों की बात नहीं है, यह अपना ही शासन है
सुनो ! पेट की ख़ातिर रेहन, रीढ़ धराई जाती है
मछुआरा हर बॉस यहाँ पर, बाँसी-काँटा थामे है
रोज़ी का संकट भारी है, देह भुनाई जाती है
ठाली अफ़सर, खाली दफ्तर, घूम-घूमकर देखा है
गाल बजाए जाते हैं या, जय-जय गाई जाती है
सहने की सीमा होती है, कितना और सहें, यारो!
क्यों जनता कुलवधू बिचारी , मौन सताई जाती है
उठो, सत्य के पहरेदारो ! तोड़ झूठ के मयखाने
सौ-सौ संगीनें उठने पर, कलम उठाई जाती है (102)
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