हर बुलडोज़र के आगे पर्वत बन जाओ रे
इन खेतों में आँगन को यूँ कब तक बाँटोगे?
मंदिर में सिज़्दे, मस्जिद में प्रतिमा लाओ रे
ये टूटे दिल के नग्मे गाने से क्या होगा?
ज़ालिम मीनारें टूटें कुछ ऐसा गाओ रे
'गा' गोली, 'बा' बंदूकें, 'खा' से खून-पसीना
'रा' रोटी, 'आ' आग और 'ला' लहू पढ़ाओ रे
अब और न तश्तरियों में यह ज़िन्दा मांस सजे
रोटी के हक़ की ख़ातिर तलवार उठाओ रे [106]
2 टिप्पणियां:
बेहद प्रभावी और आह्वानकारी ग़ज़ल...
ऐसा आंदोलनकारी आनंद आजकल दुर्लभ हो रहा है....
मंदिर में सिज़्दे और मस्जिद में प्रतिमा लाओ रे...
आज की ज़रूरत. कमाल की ग़ज़ल
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