दीप से छत जल रही है
आस्था हर छल रही है
गिरगिटी काया पहन कर
रोशनी खुद छल रही है
आँख में आहत सपन की
मौन पीड़ा पल रही है
भूमि के रस कलश सारे
धूप पीती चल रही है
मानसूनी यह हवा अब
सूर्य को क्यों खल रही है
काट दो इस देह से, जो
एक बाजू गल रही है [117]
6/11 /1981
आस्था हर छल रही है
गिरगिटी काया पहन कर
रोशनी खुद छल रही है
आँख में आहत सपन की
मौन पीड़ा पल रही है
भूमि के रस कलश सारे
धूप पीती चल रही है
मानसूनी यह हवा अब
सूर्य को क्यों खल रही है
काट दो इस देह से, जो
एक बाजू गल रही है [117]
6/11 /1981
2 टिप्पणियां:
पुरानी तेवरी पर नये तेवर ... सच है, आज आस्था छली गई है :(
तेवरियों के तो हम प्रशंसक हैं ही, इसलिए बिना कहे हमारी वाह-वाह सम्मिलित मानी जाए |
एक टिप्पणी भेजें