एक बार बहके मौसम में कर बैठा नादानी
रह रह कर बह बह जीवन भर कीमत पड़ी चुकानी
एक कटोरी दूध लिए कब से लोरी गाता हूँ
जब से चरखा कात रही है चंदा वाली नानी
जाने कैसे लिख लेते सब रोज़ नई गाथाएँ
इतने दिन से जूझ रहा मैं पुरी न एक कहानी
साँझ घिरे जिसकी वेणी में बरसों बेला गूँथी
पत्थर की यह चोट शीश पर उसकी शेष निशानी
एक शहर था चहल पहल थी आबादी थी घर थे
रह रह कर बह बह जीवन भर कीमत पड़ी चुकानी
एक कटोरी दूध लिए कब से लोरी गाता हूँ
जब से चरखा कात रही है चंदा वाली नानी
जाने कैसे लिख लेते सब रोज़ नई गाथाएँ
इतने दिन से जूझ रहा मैं पुरी न एक कहानी
साँझ घिरे जिसकी वेणी में बरसों बेला गूँथी
पत्थर की यह चोट शीश पर उसकी शेष निशानी
एक शहर था चहल पहल थी आबादी थी घर थे
नई सदी में नदी रोक कर टिहरी पड़ी डुबानी [132]
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें