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मंगलवार, 1 मई 2012

एक बार बहके मौसम में कर बैठा नादानी

एक बार बहके मौसम में कर बैठा नादानी
रह रह कर बह बह जीवन भर कीमत पड़ी चुकानी

एक कटोरी दूध लिए कब से लोरी गाता हूँ
जब से चरखा कात रही है चंदा वाली नानी

जाने कैसे लिख लेते सब रोज़ नई गाथाएँ
इतने दिन से जूझ रहा मैं पुरी न एक कहानी

साँझ घिरे जिसकी वेणी में बरसों बेला गूँथी
पत्थर की यह चोट शीश पर उसकी शेष निशानी

एक शहर था चहल पहल थी आबादी थी घर थे
नई सदी में नदी रोक कर टिहरी पड़ी डुबानी  [132]

पूर्णकुंभ - जनवरी 2002  - आवरण पृष्ठ 

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