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बुधवार, 24 अगस्त 2011

देशद्रोहियों के हैं पहरे देश में

देशद्रोहियों के हैं पहरे देश में
ज़हरों के सागर हैं गहरे देश में

लालकिले पर आज़ादी विकलांग है
प्यासी आवाजों के बहरे देश में

एक तिरंगा है गुंबज पर; सड़कों पर
रंग बिरंगे झंडे फहरे देश में

अंधे के कंधे पर लंगड़ा भाई है
यही यात्रा होती ठहरे देश में

आँगन आँगन दीवारें हैं, खाई हैं
नई फसल अब कैसे लहरे देश में?    [128 ]

03 /12 /1981  

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

देशद्रोहियों को तो हम पाल रहे हैं। अब गिला करें तो किससे????????????