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शुक्रवार, 6 जुलाई 2007

रोटी : दस तेवरियाँ

1.
पेट भरा हो तो सूझे है, ताजा रोटी बासी रोटी
पापड़ ही पकवान लगे है, भूख न जाने सूखी रोटी

ऐंठी आँतों की नैतिकता, मोटे सेठों की नैतिकता
भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ हैं, रूखी रोटी चुपड़ी रोटी

घसियारों की एस बस्ती में, आदमखोरों की हस्ती में
रोज़ ख़ून के भाव बिके है, काली रोटी गोरी रोटी

आधा तन फुँकता है मिल में, आधा नाचे है महफ़िल में
सब कुछ बेच कमा पाए है, टुकड़ा रोटी आधी रोटी

शासन अनुशासन सिखलाता, पर मालिक चाबुक दिखलाता
संसद बाँट-बाँट खाए है, नेता रोटी मंत्री रोटी

लोकतंत्र का वो दूल्हा है, जिसका ये फूटा चूल्हा है
तपे तवे से हाथ पके हैं, छाला रोटी छैनी रोटी

नैतिक पतन इसे मत कहना, अपराधी की ओर न रहना
सावधान! ये हाथ उठे हैं, भाला रोटी बरछी रोटी

2.
शक्ति का अवतार हैं ये रोटियाँ
शिव स्वयं साकार हैं ये रोटियाँ

भूख में होता भजन, यारो नहीं
भक्ति का आधार हैं ये रोटियाँ

घास खाने के लिए कर दें विवश
अकबरी दरबार हैं ये रोटियाँ

और मत इनको उछालें आप अब
क्रांति का हथियार हैं ये रोटियाँ

तुम बहुत चालाक, टुकड़े कर रहे
युद्ध को तैयार हैं ये रोटियाँ

टोपियों का चूर कर दें राजमद
दर-असल सरकार हैं ये रोटियाँ

तलघरों की क़ैद को तोड़ें, चलो
मुक्ति का अधिकार हैं ये रोटियाँ

3.
उगी रोटियाँ देख बाली गेहूँ की
पकी खड़ी हर खेत बाली गेहूँ की

सफ़र किया बाज़ारों का खलिहान ने
ख़ाली-ख़ाली पेट बाली गेहूँ की

गलियारों में होली की तैयारियाँ
उपजे बीज अनेक बाली गेहूँ की

मिले न अपना ख़ून उनकी मदिरा में
करे बग़ावत एक बाली गेहूँ की

टिड्डी-दल की ख़ैर नहीं इस बार तो
ताने हुए गुलेल बाली गेहूँ की

4.
आज हाथों को सुनो आरी बना लो साथियो
धूप के दुश्मन बड़े वट काट डालो साथियो

सिर्फ़ नारों को हवा में, मत उछालो साथियो
बोझ सबका साथ मिलकर सब उठालो साथियो

रौंदते सारी फ़सल को जानवर जो घूमते
सींग थामो और खेतों से निकालो साथियो

नाग डसने लग रहे हैं देह धरती की, सुनो
तुम गरुड़ बनकर इन्हें अब कील डालो साथियो

रोटियाँ ऐसे सड़क पर तो पड़ी मिलती नहीं
जो महासागर, उन्हीं की तह खँगालो साथियो

जो अँधेरे में भटकती पीढ़ियों का ध्रुव बने
दीप अपने रक्त से वह आज बालो साथियो

सो गए तो याद रखना, देश फिर लुट जायगा
अब उठो हर मोर्चे को खुद सँभालो साथियो

5.
हर दिन बड़ा है आपका, अपना न एक दिन
सब छूरियाँ ठूँठी पड़ीं, कटता न केक दिन

सूरज बदन प' झेलता, मौसम की लाठियाँ
बदले मिज़ाज अभ्र का, खोता विवेक दिन

कुछ गालियाँ देकर कभी, कुछ बाट गोलियाँ
तुम छल चुके हमको, सुनो, अब तक अनेक दिन

कुछ हाथ बढ़ रहे इधर, तुमको तराशने
आकाशबेल! खेल लो. जी लो कुछेक दिन

रोटी जहाँ गिरवी धरी, वह जेल तोड़ दें
अब मुक्त करना है हमें, बंदी हरेक दिन

6.
आँखों में तेज़ाब बन गए, जितने क्वाँरे स्वप्न सजाए
अंग-अंग पर कोड़ों के व्रण, हाथों पर छल-छाले छाए

कुर्सी-नारायण गाथा में, साधु चोर, राजा झूठा है
कलावती कन्या विधवा है, आत्मदाह से कौन बचाए?

चौराहों पर भरी दुपहरी, रोज़ धूप का कत्ल हो रहा
सभी हथेली रची ख़ून में, कौन महावर-हिना रचाए?

गलियारों में सन्नाटा है, नुक्कड़-नुक्कड़ हवा सहमती
उठो, समर्पण की बेला है, समय चीख कर तुम्हें बुलाए

बुझे हुए चूल्हों की तुमको, फिर से आँच जगानी होगी
'रोटी-इष्टि' यज्ञ में यारों! हर कुर्सी स्वाहा हो जाए

7.
रेखाओं के चक्रव्यूह में स्वयं बिंदु ही क़ैद हो गया
यह कैसी आज़ादी आई व्यक्ति तंत्र का दास हो गया

काली ज़हरीली सड़कों पर कोलतार में ख़ून मिल रहा
मेरे भारत में सर्वोदय खंडित स्वर्णिम स्वप्न हो गया

गंगा-यमुना की सब लहरें शीश धुन रही हैं संगम पर
क्यों गुलाब के हर थाले में नागफनी का जन्म हो गया

कुरुक्षेत्र के धर्म क्षेत्र में गीता के उपदेश विफल हैं
दिल्ली-दरवाज़े तक आकर मंत्र क्रांति का स्वाह हो गया

सूखी आँतों, भूखे पेटों को रोटी तो मिल न सकी, पर
रक्त आदमी का कुर्सी के होंठों का सिंगार हो गया

कुर्सी की समिधाओं से अब नई चेतना यज्ञ करेगी
झूठे आश्वासन, नारों से दूषित पर्यावरण हो गया

8.
रात उनके नाचघर में आ गई वर्षा
लोग कहते हैं, शहर में आ गई वर्षा

चीर दी फिर किस जनक ने भूमि की छाती
बिजलियाँ कड़कीं, अधर में आ गई वर्षा

झोंपड़ी तक तो न पहुँची, छोड़कर संसद
लुट गई होगी डगर में, आ गई वर्षा

पड़ गई इतनी दरारें, यह नई छत भी
काँपती आठों पहर में, आ गई वर्षा

पाप की जिन कोठियों में रोटियाँ गिरवी
सब बदलती खंडहर में आ गई वर्षा

ऊसरों में भी उगेंगी, अब नई फ़सलें
लहलहाती खेत भर में, आ गई वर्षा

9.
ईंट, ढेले, गोलियाँ, पत्थर, गुलेलें हैं
अब जिसे भी देखिए, उस पर गुलेलें हैं

आपकी ड्योढी रही, दुत्कारती जिनको
स्पर्शवर्जित झोंपड़ी, महतर गुलेलें हैं

यह इलाक़ा छोड़कर, जाना पड़ेगा ही
टिडिडयों में शोर है, घर-घर गुलेलें हैं

बन गए मालिक उठा, तुम हाथ में हंटर
अब न कहना चौंककर, नौकर गुलेलें हैं

इस कचहरी का यही, आदेश है तुमको
खाइए, अब भाग्य में, ठोकर गुलेलें हैं

क्या पता क्या दंड दे, यह आज क़ातिल को
भीड़ पर तलवार हैं, ख़ंजर गुलेलें हैं

रोटियाँ लटकी हुई हैं बुर्ज के ऊपर
प्रश्न- 'कैसे पाइए' उत्तर गुलेलें हैं

है चटोरी जीभ ख़ूनी आपकी सुनिए,
इस बिमारी में उचित नश्तर गुलेलें हैं

ये निशाने के लिए, हैं सध चुके बाज़ू
दृष्टि के हर छोर पर, तत्पर गुलेलें हैं

तार आया गाँव से, यह राजधानी में
शब्द के तेवर नए, अक्षर गुलेलें हैं

10.
धर्म, भाषा, जाति, दल का, आजकल आतंक है
इन सभी का दुर्ग टूटे, एक ऐसा युद्ध हो

भर दिया भोले मनुज के, कंठ में जिसने ज़हर
वह प्रचारक मंच टूटे, एक ऐसा युद्ध हो

नागरिक के हाथ में जो, द्वेष की तलवार दे
शब्द का वह कोष टूटे, एक ऐसा युद्ध हो

रंग के या नस्ल के हित, जो कि नक़्शा नोच दे
क्रूर वह नाखून टूटे, एक ऐसा युद्ध हो

ख़ून का व्यवसाय करते, लोग कुर्सी के लिए
वोट की दूकान टूटे, एक ऐसा युद्ध हो

भीष्म-द्रोणाचार्य सारे, रोटियों पर बिक रहे
अर्जुनों का मोह टूटे, एक ऐसा युद्ध हो  0

--ऋषभ देव शर्मा

3 टिप्‍पणियां:

Devi Nangrani ने कहा…

वाह ऋषभजी
बखूबी बयान किया है आज के माहौल का इन्दधनुषी चित्र लफ्ज़ों के माध्यम से.
दाद स्वरूप मेरा पर्यास शामिल हैः

घास खाने के लिए कर दें विवश
पेट की दरकार हैं ये रोटियाँ.
मांगने से क्या मिली किसको यहां
जँग का बस सार हैं ये रोटियाँ.

सादर
देवी नागरानी

उन्मुक्त ने कहा…

अच्छी कविता है। स्वागत है हिन्दी चिट्ठा जगत में।

Rishabha deo sharma ने कहा…

Dhanyawad unmukta ji.