अश्व हुए निर् अंकुश, वल्गाएँ ढीली थीं
मुँह के बल आन गिरे, राहें रपटीली थीं
कहते हो, आँगन में क्यों धुआँ धुआँ ही है
इस अग्निहोत्र की सब समिधाएँ गीली थीं
आँखें हैं झँपी झँपी औ' कंठ हुआ नीला
दोपहरी में रवि ने पीडाएँ पी ली थीं
ये कसे हुए जबड़े, ये घुटी हुई चीखें
हैं तनी नसें साक्षी, जिह्वाएँ सी ली थी.
ये लोग न पहचाने सोई चिनगारी को
डिबिया में बंद पड़ी ज्वाला की तीली थीं
यह देख बाँसुरी तुम भ्रम में मत पड जाना
कालिय की फुंकारें हमने ही कीली थीं [133]
मुँह के बल आन गिरे, राहें रपटीली थीं
कहते हो, आँगन में क्यों धुआँ धुआँ ही है
इस अग्निहोत्र की सब समिधाएँ गीली थीं
आँखें हैं झँपी झँपी औ' कंठ हुआ नीला
दोपहरी में रवि ने पीडाएँ पी ली थीं
ये कसे हुए जबड़े, ये घुटी हुई चीखें
हैं तनी नसें साक्षी, जिह्वाएँ सी ली थी.
ये लोग न पहचाने सोई चिनगारी को
डिबिया में बंद पड़ी ज्वाला की तीली थीं
यह देख बाँसुरी तुम भ्रम में मत पड जाना
कालिय की फुंकारें हमने ही कीली थीं [133]
1 टिप्पणी:
डॉ. ऋषभ देव शर्मा की तेवरियों का कथ्य युगानुरूप , ओजपूर्ण हैं किन्तु तुकों का अशुद्ध प्रयोग अखरता है +रमेशराज
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