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शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

तेवरी काव्यांदोलन की आधिकारिक घोषणा

घोषणा  


[''तेवरी'',१९८२,की भूमिका] 



इस प्रथम तेवरी-संकलन के माध्यम से हम तेवरी काव्यान्दोलन की आधिकारिक घोषणा कर रहे हैं।  
यहाँ हिन्दी कविता की वर्तमान स्थिति और युग-जीवन के प्रति उसकी भूमिका पर संक्षेप में विचार करना आवश्यक है ताकि ‘तेवरी’ की समयोपयोगिता और प्रासंगिकता को समझा जा सके तथा इस काव्य-विधा के विषय में किसी को भी किसी प्रकार का भ्रम न रहे।

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१९५० में भारतीय परिस्थितियों में आधारभूत परिवर्तन उपस्थित हुआ।  जीवन के वे सभी स्त्रोत जिन पर शताब्दियों तक अभारतीयों का अधिकार रहा था, भारतीयों के अधिकार में आए।  स्वतन्त्रता की प्राप्ति के साथ ही भारत विश्व के महानतम लोकतन्त्र के रूप में उभरा और संविधान के माध्यम से यह घोषित किया गया कि मनुष्य को सम्पूर्ण विकास के समग्र अवसर देना उसका महत्तम लक्ष्य है।  इस घोषणा के अनुरूप नई सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था भी स्वीकार करने का संकल्प किया गया।  पंचवर्षीय योजनाओं का प्रचालन, कला-अकादमियों की स्थापना, निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा, विकासशील मिश्रित अर्थव्यवस्था, पंचायत प्रणाली आदि अनेक ऐसे कदम हैं, जो जनहित में स्वीकार किए गए और जिनसे लगा कि अब यह देश शीघ्र ही अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त कर लेगा।  बिना किसी सन्देह के आम भारतीय इस परिवर्तन से अभिभूत हो उठा।  यह स्वाभाविक भी था।  एक ओर नव-स्वतन्त्रता प्राप्ति का उल्लास, दूसरी ओर लोकतन्त्र में जीने की आकांक्षा, तीसरी ओर शासन द्वारा नित्य-नए लुभावने घोषणाक्रम- इन सब के साथ नेहरू, पटेल, पन्त, किदवई आदि का भव्य व्यक्तित्व, सन्देह की गुंजाइश ही नहीं थी।  भारतीय जनता एक प्रकार से भविष्य के स्वप्न में खो सी गई।  उधर नेहरू के अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व ने इतना सम्मोहन पैदा कर दिया कि किसी को भी विश्लेषण का अवसर ही नहीं मिला।  जब तक नेहरू जीवित रहे, तब तक जनता केवल उन्हें और उनके दल को जानती थी।  प्रत्येक आम चुनाव में नेहरू अधिक से अधिक प्रभावशाली होते चले गए।  परिणाम यह हुआ कि इकदलीय शासन और किसी हद तक एक व्यक्ति के शासन की परम्परा स्थापित हो गई।  भरतीय लोकतन्त्र को लगनेवाला यह पहला धक्का था।  इसका पता आम जनता को तब लगा, जब ५० से ६० तक के पूरे दशक में किसी भी योजना ने सुपरिणाम नहीं दिखाया।  इसका मूल कारण था कि नेहरू के साथ काम करने वाले प्रशासनिक लोग केवल उनकी जी-हुज़ूरी करते थे, बदले में सार्वजनिक उपक्रमों को डकारते थे।  नेहरू के पास एक तो अधिकतर भारत से बाहर रहने के कारण, दूसरे अहम तुष्ट होते रहने के कारण - इस बात का अवकाश ही नहीं था कि वह निचली प्रशासनिक गतिविधियों को समय-समय पर आंकलित कर सकें।    स्वप्नभंग १९६२ में हुआ।  चीन ने बिना किसी विशेष प्रयास के भारत की १२ हज़ार वर्गमील भूमि हथिया ली।  बदले में हम कुछ नहीं कर सके।  उस भूमि का प्रश्न आज भी ज्यों का त्यों है।

आइये, देश की इन परिस्थितियों में कविता की भूमिका पर दृष्टिपात करें।  १९५० में जब  राष्ट्रीय स्तर पर महान परिवर्तन आए, कविता ने भी नए परिवर्तन को स्वीकार किया।  छायावाद की सूक्ष्म रहस्यवादी खोजबीन, प्रगतिवाद की राजनैतिक नारेबाज़ी, तथाकथित प्रयोगवाद की काम-कुण्ठाओं तथा देश की स्वतन्त्रता के लिए रक्त होम देने की लड़ाकू अभिव्यक्ति से अलग हटकर कविता ने गम्भीर दृष्टि अपनाने की घोषणा की।  कविता के इस नए मोड़ को ‘नई कविता आन्दोलन’ कहा गया।  इसकी मुख्य मन्यताएं इस प्रकार थी-
       
       - मनुष्य को मानवीय दृष्टि से देखना
- स्थितियों का यथार्थपरक अंकन
- नए मनुष्य की खोज
- वाद-मुक्त चिंतन
- व्यवस्था पर व्यंग्य
- शिल्प के बन्धन से मुक्ति आदि।

प्रारम्भिक काल में यह कविता रोमानी प्रवृत्ति-प्रधान रही।  इसने बिना कोई विचार किए उन स्वप्नों को विस्तार के साथ अभिव्यक्ति दी जो जनता ने नेताओं के माध्यम से पाले थे, किन्तु इस प्रारम्भिक काल में भी विभाजन के परिणामस्वरूप जो पीडा राष्ट्र के हिस्से में आइ थी, वह बहुत कम अवसरों पर मुखरित हुई।  धीरे-धीरे यह कविता यथार्थ प्रधान रोमानी दिशा में बढ़ती प्रतीत हुई।  यह काल ’५५-५६ के आसपास शुरू होता है।  इसके बाद पुनः एक बड़ा परिवर्तन उभरा और कविता का यथार्थ अतिनग्न होने लगा, यद्यपि विरूप स्थिति को एकदम उघाड़ कर रख देनेवाली बात पुष्ट तर्क के रूप में प्रस्तुत की जाती है, किन्तु केवल गाली देकर और नितान्त वस्तुवादी होकर कविता ने अपने यथार्थवादी उद्देश्य के प्रति ईमानदारी बरती है, इसमें सन्देह है।  यह सन्देह इसलिए और बढ़ जाता है कि जिस समय राष्ट्र प्रत्येक ओर से दुरभिसन्धियों से घिरता जा रहा था, उस समय ये कवि रोज़ नए नामान्दोलन लेकर सामने आ रहे थे और हर नई सुबह नए मैनीफ़ैस्टो की आँख से स्थितियों को देख रहे थे।  जाहिर है कि इस काल में बहुत कुछ कूड़ा-कचरा लिखा गया।

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कविता की लीक एक बार बदली तो बदलती ही चली गई।  इन्दिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनते ही बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ और देश का सबसे बड़ा दल व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए दो भागों में बंट गया।  नाटकीय राजनीति समाजवाद, धर्म निरपेक्षता, गुट निरपेक्षता, हरिजन कल्याण, अल्पसंख्यक सुरक्षा, गरीबी हटाओ, बेरोज़गारी दूर करो जैसे नारों के बल पर खुलकर खेली जाने लगी।  उधर चुनावी राजनीति  शुरू हुई और जातिवाद, वर्गवाद, सामुदायिकता को बिना किसी संकोच के बढ़ावा दिया गया।  इस सब दशा पर प्रारम्भ में ही अंकुश लगाया जाना चहिए था, जो सही कलमकारों का दायित्व था, किन्तु हम देखते हैं कि ऐसा नहीं किया गया। जिन रचनाकारों ने कुछ तीखी बात कही, उन्हें जैसे न सुनने देने का संकल्प ही कर लिया गया, बाक़ी जिन्हे सुना और प्रसारित किया गया, वे नए राजाओं की शान में कसीदे लिखने वाले लोग थे।  सारे देश ने देखा कि भारत-बंगलादेश युद्ध में भारतीय जवानों ने अपने रक्त से जो विजयश्री प्राप्त की, उसे शिमला में समझौते की मेज़ पर भुट्टो की झोली में डाल देनेवाले नेताओं को भी महान विभूति कहकर अनेक रचनाएं लिखी गईं।  जनता ने खून के घूंट तो उस समय पिए, जब २६ जून १९७५ को सारे देश में ‘आपात स्थिति’ लागू कर दी गई और राष्ट्र को बहुत बड़ी जेल में बदल दिया गया।  उस समय रचनाकारों की बहुत बड़ी जमात ने पुरानी दरबारी परम्परा को पुनर्जीवित किया।  उसने उन कुछ गिनेचुने लेखकों पर कोई ध्यान नहीं दिया जो आपात स्थिति विरोधी आवाज़ उठाकर सींखचों के पीछे चले गए थे।  इस जमात का मुख्य काम था, सत्ता द्वारा किए गए प्रत्येक कार्य का आँख बन्द करके समर्थन करना, भारत की भाग्यविधाता के रूप में प्रधानमंत्री को देखना, अनुशासन पर्व के नाम पर जनता के उत्पीड़न का समर्थन करना, चिन्तन की स्वतंत्रता का विरोध करना, समाचार पत्रों पर लगे सेन्सर को ठीक बताना और एक व्यक्ति की तानाशाही के प्रति समर्पित होना। बदले मे इस जमात के सदस्यों को सरकारी प्रतिनिधि मण्डलों की सदस्यता, विदेश भ्रमण की सुविधा और सरकारी पुरस्कार प्राप्त हुए।  लगता था, कोई प्राचीन राजा अपने दरबारियों को तमगों के टुकड़े डाल रहा हो और दरबारी ‘हें हें’ करके खींसे निपोर रहे हों।  कविता की इस भूमिका को कौन सुचिन्तक समय-सापेक्ष मान सकता है?

१९७७ में पुनः जनता के अपने साहस के बल पर राजनैतिक दृश्य परिवर्तित हुआ।  इस समय साहित्यकारों द्वारा एक नया ही नाटक प्रस्तुत किया गया।  वह था, अपने को दूसरी आज़ादी का मसीहा मनवा लेने की होड़।  जिन संघर्षधर्मी लेखकों ने पहले नुक्कड़ सभाएं आयोजित करके पुलिस के डण्डे खाए थे और बाद में जेल जीवन में कैन्सर जैसी भयंकर बीमारियों प्राप्त की थीं, उन्हें इन नाटकबाज़ों द्वारा ठीक उसी प्रकार पीछे धकेल दिया गया, जिस प्रकार १९४७ में चालाक राजनेताओं ने स्वतंत्रता के वास्तविक प्रहरियों को। जनता पार्टी के शासन में पत्र-पत्रिकाओं के बीच विशेषांक-युद्ध चल पडा।  ऐसे हज़ारों लेखक और कवि सामने आ गए जिन्होंने बहुत भावात्मक शब्दों में अपने आपात स्थिति विरोधी होने की क़समें खाईं और सारे अनुशासन पर्व को अत्याचार पर्व सिद्ध किया।  जिस समय देश में विनाश पर्व मनाया जा रहा था, उस समय ये सब लोग अपनी वाणी कहाँ खो बैठे थे?  यह सवाल आज भी आम आदमी को परेशान कर रहा है।  स्मृति कमज़ोर होते हुए भी आम जनता अनेक अवसरों पर यह सोचने लगती है कि आज पिछले शासन को गाली देनेवाले ये लेखक कहीं उसी जमात के सदस्य तो नहीं है जिसने तानाशाही के दिनों मे सत्ता से बेशर्म होकर गठबन्धन कर लिया था और आम जनता का यह कभी-कभी की सोच साहित्यकारों की भावी युवा पीढ़ी के प्रति उसकी विश्वसनीयता पर हानिकारक चोट करता है।  स्थितियां आज भी तेज़ी से बदल रही हैं।  व्यक्ति पूजा बढ़ रही है, दल- बदल को प्रोत्साहन दिया जा रहा है, देश की आर्थिक प्रगति के सम्बन्ध में असत्य घोषणाएं करके सस्ती लोकप्रियता अर्जित की जा रही है, और किसी न किसी स्तर पर पुनःतानाशाही लाने के बारे में सोचा जा रहा है, किन्तु कविता बहुत कुछ करती प्रतीत नहीं होती।  इस समय पत्र-पत्रिकाओं में, पुस्तकों में और कवि सम्मेलन के मंचों पर का तो समझ न आने वाली कविताएँ प्रस्तुत की जा रही हैं, या अतिवैयक्तिक कुण्ठाएं सामने आ रही हैं, या फिर मनोरंजन और रोमांस को उछाला जा रहा है।

समय और कविता की इस भूमिका से हमारी दृष्टि में ये बातें स्पष्ट होती हैं--
        -कविता ने १९५० में नई कविता आन्दोलन के नाम से जिस स्वरूप को प्राप्त करने का प्रयास किया था और जिस दिशा में बढ़ने की घोषणा की थी, वह बहुत विश्वास से भरा हुआ था।
-प्रारम्भिक काल में उसकी अभिव्यक्तियां सार्थक थीं क्योंकि कविता ने नव-स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिकों से जुड़ने का प्रयास किया और उनकी आकांक्षाओं को रचना में ढाला।  प्रारम्भ में ही शिल्प के बन्धन से मुक्ति की जो घोषणा की गई थी, वह उपयोगी थी।  उसने शब्द से हटकर अर्थ पर केंद्रित होने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया।
-धीरे-धीरे राष्ट्र की आर्थिक-राजनैतिक दशा में परिवर्तन हुआ तथा जनता के स्वप्न खण्डित होने शुरू हुए।  प्रारम्भ में तो कविता ने इन परिवर्तनों को अभिव्यक्ति दी, किन्तु धीरे धीरे कविता राष्ट्रीय परिवर्तनों के अनुरूप अपने अंदर परिवर्तन लाने में असमर्थ होती चली गई।  
-शिल्प-मुक्ति की सुविधा ने आगे चलकर अप्रासंगिक रचनाओं को बढ़ावा दिया क्योंकि ऐसे लेखकों की बाढ़ सी आ गई जो कविता के मर्म को नहीं समझते थे, किन्तु बन्धन मुक्ति के तर्क के आगे उनके कहे हुए को रचना न मानना सम्भव नहीं था।
-स्वतंत्रता के बाद की इस कविता को वास्तविकता से काटने का कार्य प्रतिदिन सामने आनेवाले नए-नए आन्दोलनों ने किया।  ये आन्दोलन अधिकतर व्यक्तिगत विरोधों के कारण सामने आए।  कुछ के पीछे अस्वाभाविक विदेशी प्रभाव भी रहा।  दोनों ही कारण नए काव्यान्दोलन की मूल अवधारणा से अलग हटकर कविता को जन्म देनेवाले बने।  इन्होंने ही एक समय कविता को सेक्स, गाली, कुण्ठा, भय, इर्ष्या आदि का प्रतिरूप बना दिया।


-अभिव्यक्ति के क्षेत्र में यह नया काव्यान्दोलन एक अर्थ में आभिजात्य हो गया।  प्रतीक बिम्ब और भाषा सभी कुछ नए साँचे में ढल कर सामने आए।  कहा तो यह गया था कि नया शिल्प बहुत सरल, समझ में आनेवाला, बेलाग तरीक़े से बात कहनेवाला और स्पष्ट होगा, किन्तु इतने वर्षों में भी ऐसा कुछ दिखाई नहीं दिया।  आज भी अधिकांश पाठक इस शैली की रचनाओं से कतराते नज़र आते हैं।
-आभिजात्य होने की इस स्थिति ने ही सम्प्रेषणीयता की समस्या को जन्म दिया।  सम्प्रेषणीयता को मुख्य मुद्दा मानकर चलनेवाली कविता ही उसके निकट नहीं रह सकी, यह विशेष चिन्ता का विषय है।  इस प्रश्न से यह कहकर नहीं बचा जा सकता कि अभी तक नए शिल्प की कविता का पाठक वर्ग तैयार नहीं हो सका है, या कि उसे समझने में समय लगेगा।  कविता अपने पाठक से उसी समय से जुड़ जाती है, जिस समय उसका प्रथम प्रस्तुतीकरण किया जाता है- यदि ऐसा नहीं होता तो कविता का मूल उद्देश्य समाप्त हो जाता है।

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ये सब निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि हमने १९५० के बाद की कविता को निरपेक्ष दृष्टि से नहीं देखा है, हमने उसका अध्ययन किया है, जन्म से लेकर आज तक की उसकी भूमिका को राष्ट्रीय परिस्थितियों के सन्दर्भ में परखा है।  तभी यह पाया है कि यह कविता बहुत अधिक मूल्यवान होते हुए भी युग के साथ समग्र रूप से जुड़ी नहीं रह सकी है, उस वर्ग के साथ तो बिल्कुल ही नहीं जिसे अनपढ़ कहा जाता है किन्तु उसकी संख्या भारत में सब से अधिक है।  इससे प्रत्येक युवा रचनाकार के मन में असन्तोष पनपा है।

हमारी यह स्पष्ट मान्यता है कि नए युग की परिस्थितियों में कविता में नया सार्थक परिवर्तन आना चाहिए और नए ‘तेवर’ वाली ऐसी कविता का प्रारम्भ होना चाहिए जो ‘वैषम्य की निर्लज्ज मार से कण-कण ढूँढते हुए मनुष्य की घनीभूत पीड़ा, क्षोभ, हताशा, असन्तोष और विद्रोह को सही अभिव्यक्ति दे सके।  इस नए ‘तेवर’ वाली कविता में ये विशेषताएं हों-
        -यह कविता सम्प्रेषणीयता को मूल धर्म के रूप में स्वीकार कर चलें।
-शिल्प के अनुशासन के सम्बंध में नई दृष्टि अपनाई जाय क्योंकि कविता को अंततः पाठक की स्मृति में स्थापित होना है।
-यह किसी भी वाद में बंधकर न चलें।
-किसी भी स्तर पर इस कविता में आभिजात्य प्रवृत्ति का समावेश न हो।
-कविता नारेबाज़ी से हटे और उस मनःस्थिति की अभिव्यक्ति ही करे जो वास्तव में आम आदमी की है।
-यह कविता विवरण, रूदन आदि से हटकर, क्रांति-प्रेरणा का कार्य करे।
-यह कविता अपनी जमीन से जुड़ी हुई हो।
युग की इसी आवश्यकता को स्वीकार करते हुए हिंदी काव्य के क्षेत्र में नए काव्यान्दोलन ‘तेवरी’ का उदय हुआ। 


‘तेवरी’ काव्यान्दोलन अपनी पिछली किसी भी काव्यविधा की प्रतिक्रिया के रूप में सामने नहीं आया है वरन्‌ यह विधा मानव जीवन को अधिक निकट से देखने का प्रयास है।  ‘तेवरी’ की परिभाषा करते हुए हमारा कहना है कि--

‘ऐसी कविता जो नंगी पीठ पर पड़ते हुए कोड़े की आवाज़, पिटते हुए व्यक्ति के मुख से निकली हुई आह-कराह, भरी सभा में भोली जनता के सामने घडियाली आँसू बहाता और कभी न पूरे होनेवाले चित्ताकर्षक आश्वासन देता हुआ नेता, भूखे बच्चे की बापू के आने का विश्वास दिलाती हुई महिला, रोटी मांगती हुई बच्ची, सेवायोजन कार्यालय के सामने खड़े-खड़े थकने पर सारी व्यवस्था को गाली देता हुआ नवयुवक, सुविधाओं के अभाव में आत्महत्या करता हुआ वैज्ञानिक तथा इन सब स्थितियों के विरुद्ध मनुष्य के भीतर लावे की तरह बहने वाला असन्तोष जन्म अक्रोश - इन सबको एक साथ प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्ति प्रदान कर सके, निस्सन्देह ‘तेवरी’ है।  तेवरी के स्वरूप के विषय में निम्नांकित बातें कही गई है-
        -विशेष ‘तेवर’ वाली कविता के नाम से जिन विशेषताओं से युक्त कविता का संकेत ऊपर किया गया है, वह तेवरी है।
- असन्तोषजन्य आक्रोश तेवरी का मुख्य भाव है, यह किसी भी प्रकार पराजय का लक्षण नहीं है वरन्‌ जन-जागरण एवं रचनात्मक क्रान्ति की भूमिका का निर्माता है।
-प्रत्येक प्रकार की अव्यवस्था के प्रति आक्रोश और विद्रोह तेवरी के शब्द-शब्द से झलकता है।
-यथार्थ के प्रभावशाली अंकन के लिए व्यंग्य को अपनाना तेवरी की प्रकृति का एक भाग है।
-तेवरी ‘अक्खड़’ अभिव्यक्ति को प्राथमिकता देती है।  यह अक्खड़ता साफ-साफ बेलाग बात कहने के लिए अत्यन्त आवश्यक है।


-तेवरी दुरभिसन्धियों की ओर संकेत भर करना नहीं चाहिए, वरन्‌ पर्दाफाश करना चाहती है।  उसका विश्वास है कि संकेत करके षड्यंत्रों के विरुद्ध किए गए सामूहिक प्रयासों में बराबर की हिस्सेदारी नहीं निबाही जा सकती।  यदि क्रान्ति लानी है, तो संकेत से आगे सीधे प्रहार की मुद्रा में आना होगा।
-तेवरी उस भाषा को अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में स्वीकारती है, जो गैर-सांप्रदायिक सार्वजनीन और समर्थ भाषा हो तथा समाज में प्रत्येक स्तर पर संवाद की स्थापना कर सके।
-तेवरी मात्रिक तथा वणिक छन्दों में कही जाती है और गाई भी जा सकती है किन्तु गाया जाना उसकी अनिवार्य विशेषता नहीं है।
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तेवरी की पृष्ठभूमि में व्यक्ति, समाज, राष्ट्र आदि से संबंध रखनेवाली कुछ निश्चयात्मक विचारधाराएँ हैं।

व्यक्ति के सम्बन्ध में तेवरी की मान्यता है कि व्यक्ति की स्वतंत्र सत्ता है किन्तु उसे विभिन्न दुरभिसन्धियों के अजगरों ने जकड़ लिया है।  इन दुरभिसन्धियों को छिन्न-भिन्न करके उस व्यक्ति को खोजना है जो साधारण मनुष्य है।  स्मरणीय है कि यही व्यक्ति मानवीय स्वतंत्रता की लड़ाई का सैनिक है।

समाज व राष्ट्र के सम्बन्ध में यह बात बहुत स्पष्ट है कि आज ऐसे समाज की आवश्यकता नहीं है जो परम्परागत विरोधों को प्रश्रय दे रहा हो बल्कि तेवरी का लक्ष्य ऐसे समाज का गठन करना है जो प्रगतिशील हो और मुक्त वातावरण का हामी हो।  राष्ट्रीयता की दृष्टि से भी उस राष्ट्रीय संवेदना को प्राप्त करना आवश्यक है, जो अपने साथ-साथ विश्व के धरातल से भी जोड़े।
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आधुनिक जीवन को प्रभावित करनेवाले विविध तत्व हैं जैसे धर्म, राजनीति, समाजनीति, आर्थिक संरचना, संस्कृति और विश्वयुद्ध की सम्भावना आदि।  इन सबने आधुनिक मनुष्य की विचारधारा और जीवन-पद्धति को प्रभावित किया है।  यह प्रभाव दो रूपों में सामने आया है।  एक- मनुष्य भय की स्थिति से घिरा है और दूसरे- उसके भीतर असंतोष, आक्रोश और विद्रोह पनपा है।  तेवरी इनमें से किसी की उपेक्षा नहीं करती, बल्कि यह मानती है कि मनुष्य के भीतर पनपने वाली इस विचारधारा को बिना किसी छुपाव के सामने लाया जाना चाहिए।

तेवरी की पृष्ठभूमि में पनपने वाली यह विशेष विचारधारा इस बात की हामी है कि कविता को ‘जन-जागृति’ का मध्यम बनाना अनिवार्य है।  इस दृष्टि से कविता की तीन भूमिकाएं हैं--
        -अव्यवस्था को खोलकर व्यक्ति के सामने रखना।
-व्यक्ति के भीतर छिपे हुए संघर्षशील तत्वों को जगाना।
-व्यक्ति को प्रहार की मुद्रा प्रदान करना।

अपनी इस भूमिका में तेवरी जनजागरण के उद्देश्य को पूर्ण करती है और यही उसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है।
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तेवरी के रचना विधान में भाग लेने वाले- भाषा, प्रतीक, बिम्ब, छन्द आदि- तत्व विशेष प्रकृति के हैं।

भाषा के सम्बंध में तेवरी काव्यान्दोलन किसी भी दुराग्रह को स्वीकार नहीं करता, तेवरी सम्प्रेषणीयता से जुड़ा हुआ समर्थ काव्यान्दोलन है। इसीलिए उसके द्वारा स्वीकार की गई भाषा के साथ हिन्दी, उर्दू या इनसे सम्बद्ध किसी भी भाषा-विवाद को नहीं बाँधा जा सकता। तेवरी का एक ही आग्रह है, सरल से सरल भाषा में जटिल से जटिल स्थिति को चित्रित करना।  कबीर की भांति अभिव्यक्ति को सम्भव बनाने वाले किसी भी शब्द को भाषा का अंग बनाया जा सकता है।  तेवरी की भाषा वह है जो साधारण से साधारण व्यक्ति को कविता के निकट ला सके, उसे उसके गुण और दोषों से परिचित करा सके, विकृति पर तीर की मानिन्द प्रहार कर सके तथा जीवन को संकल्पित आधार दे सके।  तेवरी के भाषा विषयक दृष्टिकोण की विशेषता है- भाषा को भी आन्दोलन के स्तर पर स्वीकार करना और इस आन्दोलन की अनिवार्य विशेषता है- ‘भीड के बीच से शब्द उठाना और मस्तिष्क में उन्हें बो देना।’

प्रतीक और बिम्ब की दृष्टि से तेवरी काव्यान्दोलन उन समस्त प्रतीकों और बिम्बों को अपर्याप्त और अयोग्य मानता है, जो लघु व्यक्तित्व वाले हैं तथा सामन्ती हैं।  तेवरी में प्राकृतिक, वैज्ञानिक, सामाजिक, शस्त्र सम्बन्धी, राजनैतिक, मनोवैज्ञानिक और यान्त्रिक क्षेत्र से ऐसे प्रतीक और बिम्ब ग्रहण किए जाते हैं, जो सरल हैं, समझ में आनेवाले हैं तथा कविता के ‘पुरुष’ तेवर को बनाए रखने में सक्षम हैं।

तेवरी मात्रिक या वर्णिक छन्द में कही जाती है, यह छन्द प्रथम, द्वितीय तथा सभी समपंक्तियों में तुकान्त होता है।  तेवरी काव्यान्दोलन के लिए तुकान्त छन्द अपनाने का कारण है- कविता की पहुँच को बढ़ाना।  यह आन्दोलन अनुभव करता है कि जन-जागृति का लक्ष्य तब तक प्राप्त नहीं किया जा सकता, जब तक कि कविता स्मरण योग्य रूप में न रची जाए।  साथ ही, कविता का यह भी दायित्व है कि वह रचे जाने के साथ-साथ पाठक भी स्वयं ही तैयार करे, इसके लिए उसमें पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करने की शक्ति होना आवश्यक है और यह छन्दोबद्धता और तुकान्तता में निहित है।  आज भी व्यापक जनमानस में जो कविताएं अपना स्थान बनाए हुए है, उनके पीछे छन्द और तुक बहुत बड़ी शक्ति के रूप में हैं।  अतः छन्द और तुक को स्वीकार करके यह काव्यान्दोलन जागृति के संस्कार बोने में सफलता प्राप्त करना चाहता है।
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तेवरी के शिल्प के सम्बंध में बात करते समय यह स्पष्ट कर देना अनिवार्य है कि उर्दू की काव्य विधा गज़ल और तेवरी को लेकर कोई विवाद खड़ा नहीं किया जाना चाहिए।  सरसरी तौर पर देखने से ऐसा लग सकता है कि गज़ल और तेवरी का स्वरूप एक सा है, किन्तु गम्भीर रूप से देखने पर दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है।  गज़ल का जो अनुशासन है, वह अपनी परम्परा से अब तक बिना किसी परिवर्तन के बँधा चला आ रहा है, उसका प्रत्येक शेर अपने में स्वतंत्र होता है और उसकी विषयवस्तु बहुत कुछ असंबद्ध होती है, जबकि तेवरी का प्रत्येक ‘तेवर’ स्वतन्त्रता का आभास देता हुआ भी मूल विषयवस्तु से सम्बद्ध होता है।  रचना के प्रारम्भ में किसी विषयवस्तु को उठाया जाता है और जैसे-जैसे नए तेवर जुड़ते जाते हैं वैसे-वैसे वह विषयवस्तु विकास प्राप्त करती चली जाती है, अन्त तक आते-आते रचना का प्रभाव अपनी समय सम्बद्धता को स्पष्ट कर देता है और इस प्रकार पाठक विशेष मानसिक प्रभाव को ग्रहण करता है।  इस समूची प्रक्रिया में तेवरी की अपनी मौलिक देन यह है कि वह पाठकीय संचेतना को बाँध लेती है जबकि गज़ल में यह संचेतना बहुत कुछ विश्रंखलित हो जाती है।

वैसे भी गज़ल की मानसिकता कोमल-सौंदर्य प्रधान संचेतना से जुड़ी हुई है[जहाँ भी उर्दू गज़ल अपने इस दायरे को तोड़कर बाहर आयी है, वहीं उसका स्वरूप विचित्र सा हो गया है।  यही कारण है कि उसकी प्रासंगिकता को प्रश्नांकित होने से बचाने के लिए गज़ल के हामी ‘किसी शेर का अर्थ कहीं भी जोड़ा जा सकता है’, कहते नज़र आते हैं।  वास्तव में यह कोई वज़नदार तर्क नहीं है।]  तेवरी के साथ इस प्रकार की मजबूरी नहीं है।  उसकी दृष्टि में सौन्दर्य उस विशेष रचनादृष्टि के भीतर से जन्म लेता है, जिसे कवि अपने युग के यथार्थ वातावरण से प्राप्त करता है।  आज का जो भी यथार्थ है, वही रचना की सौन्दर्य-चेतना का सृष्टा है।  इससे अलग होकर तेवरी नहीं चलना चाहती।
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तेवरी काव्यान्दोलन के माध्यम से हम गम्भीरता के साथ दायित्व के प्रश्न को उठाना चाहते हैं।  कविता मनुष्य को उसके उत्तरदायित्व से जोड़ती है।  व्यक्ति से लेकर विश्व तक का विविध-पक्षीय जीवन कैसा है, संचालक व्यवस्था द्वारा किस-किस प्रकार की कार्य-प्रणालियाँ अपनाई गई हैं, विकास के अवसरों का उपयोग किस प्रकार किया जा रहा है, सामजिक परिवर्तन किस रूप में घट रहे हैं, विज्ञान की क्षमता को विश्व के अलग-अलग वर्ग किस रूप में प्रयोग कर रहे हैं, ग्रामीण और नगरीय जीवन का सम्बन्ध कैसा है, मनुष्य के शोषण के स्त्रोत क्या-क्या हैं, स्थायी शान्ति के मार्ग की बाधाएँ क्या हैं - आदि अनेक प्रश्न ऐसे हैं, जिनका सम्बन्ध सम्पूर्ण मानवजीवन से है।  अतः यह आवश्यक है कि अब तक इन प्रश्नों पर होनेवाली ‘फ़ाइव स्टार होटल’ या ‘कवेन्शनहाल’ मार्का बहस को खुले आसमान के नीचे लाया जाए।  इसके लिए विशेष वर्गों के वर्चस्व को तिलांजलि देकर इसमें सामान्य आदमी की भागीदारी को स्वीकार करना पड़ेगा।  केवल ऐसा करके ही- उन सर्व-स्वीकृत निष्कर्षों तक पहुँचा जा सकेगा, जो सत्य और व्यावहारिकता के निकट होंगे तथा विभिन्न परिस्थितियों के अनुकूल होंगे।  इस समूची प्रक्रिया से सामन्य आदमी को दयित्व-बोध भी दिया जा सकेगा।  जब वह इन सारे प्रश्नों से सीधा साक्षात्कार करेगा तो उसके भीतर की रचनात्मकता जागेगी, यही उसे सगज और दायित्वपूर्ण बनाएगी।  इस सम्बन्ध में कविता की भूमिका यह है कि वह एक ओर तो भयावह रहस्यात्मकता को तोड़कर उपयुक्त वातावरण बनाए, दूसरी ओर समाज के प्रत्येक सदस्य के भीतर भागीदारी की चेतना को जगाए।  तेवरी इस कार्य को अपने प्राथमिक कार्यों की सूची में स्थान देती है।

इसके साथ ही हम यह भी कहना चाहते हैं कि तेवरी काव्यान्दोलन से जुड़े हुए रचनाकार प्रत्यक्ष रूप से भागीदारी के सवाल से जूझनेवाले हैं।  उनकी दृष्टि में जागरण को वेदमन्त्रों की भांति ईश्वरीय विधान के अन्तर्गत प्राप्त नहीं किया जा सकता, न उपदेश, आदेश और कीर्तनों में उसे ढूँढा जा सकता है।  उसे केवल तभी प्राप्त किया जा सकता है जबकि उन लोगों से भाईचारा  स्थापित किया जाए जिनके बीच उसे फैलाना है।  उन लोगों में अपने को घुला-मिला लिया जाए जो उसके सच्चे वाहक हैं, वह ऐसे संकल्प समर्पित कार्यकर्ताओं की है जो अपना अलग वर्ग नहीं बनाते, बल्कि अपने को उस वर्ग के एक सदस्य के रूप में देखते हैं जिसके लिए कविता लिखी जा रही है।  ऐसा करके यह आन्दोलन कविता और कवि दोनों को जनता की वस्तु बनाना चाहता है।
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तेवरी काव्यान्दोलन का क्षेत्र व्यापक है--
       -इस युग में राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय जीवन में कविता की भूमिका विवादस्पद हो गई है क्योंकि उसका ‘शिवेतरक्षतये’ पक्ष धूमिल होता जा रहा है।  तेवरी काव्यान्दोलन इस विवादास्पद भूमिका को समाप्त करके निश्चित वातावरण की सृष्टि करेगा।
-तेवरी काव्यान्दोलन कविता में से अनुपयोगी और फैशनपरस्त प्रयोगों को निकालेगा और काव्य प्रयोगं की उपयोगी श्रंखला को प्रोत्साहन देगा।
-तेवरी काव्यान्दोलन का प्राप्तव्य ‘जागृति’ है।  यह जागरण क्रान्ति का अनिवार्य एवं प्राथमिक पग है।  यह आन्दोलन इसे लाने में प्रयासरत है।
-तेवरी काव्यान्दोलन कविता में जनता की विश्वसनीयता की पुनर्स्थापना करेगा।
-तेवरी काव्यान्दोलन व्यक्ति और व्यक्ति, व्यक्ति और समाज, व्यक्ति और राज्य तथा व्यापक जनसमूह के बीच संवाद को सम्भव बनाएगा।  इसके लिए वह हर सम्भव ऐसे प्रयास करेगा जिससे कि सभी वर्ग एक दूसरे को समझ सकें और परस्पर निकट आ सकें।
-तेवरी काव्यान्दोलन भाषा के उस रूप को विकसित करेगा जो सामान्य सम्पर्क की भाषा होगी और जिसका व्यवहार बिना किसी भेद-भाव के किया जा सकेगा।

तेवरी काव्यान्दोलन की इस घोषणा के साथ ही हम यह संकलन विश्व के उस प्रत्येक व्यक्ति को समर्पित कर रहे हैं जो कहीं भी किसी भी प्रकार के शोषण के विरुद्ध संघर्षरत है!

देवराज
जून १, १९८२                                                                                                       ऋषभ देव शर्मा ‘देवराज’



प्रस्तुति : चंद्र मौलेश्वर प्रसाद 

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