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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

गलियों की आवाज़ आम है


गलियों की आवाज़ आम है

गलियों की आवाज़ आम है , माना ख़ास नहीं होगी
हीरे की यह आब , घिसो तुम, घिसकर काँच नहीं होगी

जनता के मुँह पर अंगारे , वर्दी वालों ने मारे
कुर्सी वालों का कहना है , इसकी जाँच नहीं होगी

सरकारी मिल में कुछ ईंधन, ऐसा ढाला जाएगा
चमक-दमक तो लूक-लपट सी, लेकिन आँच नहीं होगी

नाच रहा क़ानून जुर्म की महफ़िल में मदिरा पीकर
उन्हें बता दो : किंतु दुपहरी , तम की दास नहीं होगी

जनमेजय ने एक बार फिर , नागयज्ञ की ठानी है
नियति धर्मपुत्रों की फिर से , अब वनवास नहीं होगी [ ७० ]

कुर्सी बनी कुलदेवता

कुर्सी बनी कुलदेवता
कुर्सी बनी कुल - देवता इस खानदान की
तर हैं हमारे रक्त से सीढ़ी मकान की

वधुएँ हुईं कुलटा यहाँ बचकर चलो ज़रा
छल ले न तुमको भी कहीं रौनक दुकान की

नारे लगाएँ आप भी या मौन हो रहें
क्या है ज़रूरी सोचिए रक्षा ज़ुबान की?

लिखने को लिख रहे सभी दिन - रात एक कर
कितने लिखेंगे किंतु यह पीड़ा विधान की?

वे आँख में कुणाल की तकुए गुभो (पिरो) रहे
तुम खींच लो अब कान तक डोरी कमान की

हर बुर्ज पर बैठी हुई , दूती विनाश की
तनने दो यूँ गुलेल अब , हर इक मचान की [ ६९ ]

कुर्ते की जेबें खाली हैं


कुर्ते की जेबें खाली हैं






कुर्ते की जेबें खाली हैं , औ' फटा हुआ है पाजामा
इनको न भिखारी समझो तुम ,ये करने निकले हंगामा

धक्के-मुक्के, गाली-गुस्सा ,खा-पीकर इतने बड़े हुए
फुसला न सकोगे इनको तुम, दिखला करके चंदामामा

दिल्ली वाले बाजीगर जी! अब जाग उठा है शेषनाग
भागो, छोड़ो यह बीन-शीन, यह टोपी-बालों का ड्रामा [ ६८ ]