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गुरुवार, 30 अगस्त 2007

आतंकवाद : दस तेवरियाँ

(1)
 मैं हिंदू हूँ मैं मुस्लिम हूँ मैं मस्जिद मैं मंदिर हूँ
मैं पूजा हूँ मैं नमाज़ हूँ म्लेच्छ और मैं क़ाफ़िर हूँ


मैंने अस्मत लूटी मैंने छुरा घोंप कर मारा है
ऐसे पुण्य कमाया वैसे अपराधी मैं शातिर हूँ


मैंने कलियों को रौंदा है मैंने फूलों को मसला
माली की नज़रों से फिर भी ओझल हूँ मैं जाहिर हूँ


मैंने जाम पिलाए सबको मैंने ज़हर मिलाया है
आग लगाकर हाथ सेंकने लड़वाने में माहिर हूँ


मैं तो ईश्वर का बंदर हूँ देश-वेश मैं क्या जानूँ
अवध, हैदराबाद, मुंबई जहाँ कहो मैं हाज़िर हूँ


(2)
एक बड़े ऊँचे फाटक से, आग उठी, सड़कों लहरी
सावधान, सच के प्रह्लादो ! इसमें है साजिश गहरी


दाग रहे वे हर जुबान को, आँख-आँख को वेध रहे
उनके कर्म विधान स्वयं ही, उनकी बात ऋचा ठहरी


कानों में सीसा डाले वे, शीशमहल में सोए हैं
उनकी वर्दी वाली पीढ़ी, सारी की सारी बहरी


बाजारों में ख़बर गर्म है, बिना बिकी कलमें तोड़ें
लोक जलाकर तंत्र बचाएँ, लोकतंत्र के वे प्रहरी


जले हुए अख़बार देखकर, कल मेरी बिटिया बोली ;
सब ग्वाले मिलकर यों नाचें, कुचल जाय कालिय ज़हरी


(3)
योगी बन अन्याय देखना, इसको धर्म नहीं कहते हैं
धर्म प्राण तो धर्म नाम पर, अत्याचार नहीं सहते हैं


नन्हीं मुझसे रोज़ पूछती, क्या अंतर मंदिर-मस्जिद में
ऊँजी बुर्जी की छाया में, ऊँचे अपराधी रहते हैं


धुआँ-धुआँ भर दिया गगन में, घर-घर में बारूद धर दिया
पग-पग पर ज्वालामुखियों के, विस्फोटों में जन दहते हैं


बहुत हुआ उन्माद रक्त का, बहुत किश्तियाँ लूट चुके वे
जब जनगण का ज्वार उफनता, पोत दस्युओं के बहते हैं


बाजों के मुँह खून लगा है, रोज़ कबूतर वे मारेंगे
आप मचानों पर चुप बैठे, कैसा पुण्य लाभ लहते हैं


(4)
दृष्टि धुँधली स्वाद कडुआने लगा
साजिशों का फिर धुआँ छाने लगा


धर्म ने अंधा किया कुछ इस तरह
आदमी को आदमी खाने लगा


भर दिया बारूद गुड़िया चीर कर
झुनझुनों का कंठ हकलाने लगा


दैत्य "मानुष-गंध-सूँ-साँ' खोजता
दाँत औ' नाखून पैनाने लगा


नाभिकी-बम सूँड में थामे हुए
हाथियों का दल शहर ढाने लगा


यह मनुजता को बजाने की घड़ी
मुट्ठियों में ऐंठ सा आने लगा


(5)
पग-पग घर-घर हर शहर, ज्वालामय विस्फोट
कुर्सी की शतरंज में, हत्यारी हर गोट


आग लगी इस झील में, लहरें करतीं चोट
ध्वस्त न हो जाएँ कहीं, सारे हाउस बोट


कुर्ता कल्लू का फटा, चिरा पुराना कोट
पहलवान बाजार में, घुमा रहा लंगोट


सीने को वे सी रहे, तलवारों से होंठ
गला किंतु गणतंत्र का, नहीं सकेंगे घोट


जिनका पेशा खून है, जिनका ईश्वर नोट
उन सबको नंगा करो, जिनके मन में खोट


(6)
लोगों ने आग सही कितनी
लोगों ने आग कही कितनी


सेंकी तो बहुत बुखारी पर
बच्चों ने आग गही कितनी


संसद में चिनगी भर पहुँची
सड़कों पर आग बही कितनी


आँखों में कडुआ धुआँ-धुआँ
प्राणों में आग रही कितनी


हिम नदी गलानी है, नापें
कविता ने आग दही निकली


(7)
घर के कोने में बैठे हो लगा पालथी, भैया जी
खुले चौक पर आज आपका एक बयान जरूरी है


झंडों-मीनारों-घंटों ने बस्ती पर हल्ला बोला
चिड़ियाँ चीखें, कलियाँ चटखें शर-संधान जरूरी है


मैं सूरज को खोज रहा था संविधान की पुस्तक में
मेरा बेटा बोला - पापा, रोशनदान जरूरी है


जिनके भीतर तंग सुरंगें, अंधकूप तक जाती हैं
उन दरवाजों पर ख़तरे का, बड़ा निशान जरूरी है


(8)
ठीक है - जो बिक गया, खामोश है
क्यों मगर सारी सभा खामोश है


जल रही चुपचाप केसर की कली
चीड़वन क्योंकर भला खामोश है


गरदनों पर उँगलियाँ विष-गैस की
संगमरमर का किला खामोश है


यह बड़े तूफान की चेतावनी
जो उमस में हर दिशा खामोश है


आ गई हाँका लगाने की घड़ी
क्यों अभी तक तू खड़ा खामोश है


(9)
घर से बाहर नहीं निकलना, आज शहर में कर्फ्यू है
लक्ष्मण रेखा पार न करना, आज शहर में कर्फ्यू है


माना चीनी नहीं मिल रही, माना दूध नहीं घर में
फिर भी अच्छा नहीं मचलना, आज शहर में कर्फ्यू है


मस्जिद में अल्लाह न बोला, राम न मंदिर में डोला
खून किया धर्मों ने अपना, आज शहर में कर्फ्यू है


संप्रदाय की मदिरा पीकर, आदम आदमख़ोर हुआ
छाया पर विश्वास न करना, आज शहर में कर्फ्यू है


नोट-वोट का शासन बोले, अलगावों की ही भाषा
इस भाषा को हमें बदलना, आज शहर में कर्फ्यू है


गिरे घरानों का अनुशासन, नारों का जादू टूटे
जनगण सीखे स्वयं सँभलना, आज शहर में कर्फ्यू है


(10)
आग के व्यापारियों ने बाग को झुलसा दिया
और वे दुरबीन से, उठती लपट देखा किए


साधुवेशी तस्करों ने शहर सारा ठग लिया
और वे लवलीन - से सारा कपट देखा किए


साजिशों की सनसनाहट छप गई अखबार में
और वे गमगीन - से खुफिया रपट देखा किए


द्रौपदी दु:शासनों को नोंचती ही रह गई
और वे बलहीन - से छीना-झपट देखा किए


लोग उनसे श्वेतपत्रों के लिए कहते रहे
और वे अतिदीन - से बस श्यामपट देखा किए।

---ऋषभ देव शर्मा

शनिवार, 25 अगस्त 2007

देश : दस तेवरियाँ

(1)
अब न बालों और गालों की कथा लिखिए
देश लिखिए, देश का असली पता लिखिए

एक जंगल, भय अनेकों, बघनखे, खंजर
नाग कीले जायँ ऐसी सभ्यता लिखिए

शोरगुल में धर्म के, भगवान के, यारो!
आदमी होता कहाँ-कब लापता ? लिखिए

बालकों के दूध में किसने मिलाया विष ?
कौन अपराधी यहाँ ? किसकी ख़ता ? लिखिए

वे लड़ाते हैं युगों से शब्दकोषों को
जो मिलादे हर हृदय वह सरलता लिखिए

एक आँगन, सौ दरारें, भीत दीवारें
साजिशों के सामने अब बंधुता लिखिए

लोग नक्शे के निरंतर कर रहे टुकड़े
इसलिए यदि लिख सकें तो एकता लिखिए

(2)
बौनी जनता, ऊँची कुर्सी, प्रतिनिधियों का कहना है
न्यायों को कठमुल्लाओं का बंधक बनकर रहना है

वोटों की दूकान न उजड़े, चाहे देश भले उजड़े
अंधी आँधी में चुनाव की, हर संसद को बहना है

टोपी वाले बांट रहे हैं, मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे
इस बँटवारे को चुप रहकर, कितने दिन तक सहना है

देव तक्षकों के रक्षक हैं, दूध और विष की यारी
मेरठ या कश्मीर सब कहीं, यही रोज़ का दहना है

हम प्रकाश के प्रहरी निकले, कलमें तेज़ दुधारी ले
सूरज इतने साल गह चुका, राहु-केतु को गहना है
(3)
एक ऊँचा तख्त जिस पर भेड़िया आसीन है
और मंदिर में सँपेरा मंत्रणा में लीन है

बात पगड़ी और टोपी की यहाँ तक बढ़ गई
नाचते षड्यंत्र, बजती देशद्रोही बीन है

दे रहे उपदेश में गुरु गोलियाँ उन्माद की
आज पूजा के प्रसादों में मिली कोकीन है

शूल पाँवों के निकालें, शूल लेकर हाथ में
यह समय की है ज़रूरत, नीति यह प्राचीन है

(4)
एक नेता मंच पर कल रो पड़ा
लोग बोले-हो गया अचरज बड़ा

जिस तरफ कुर्सी मिले उस ओर ही
दौड़ जाता "देशभक्तों' का धड़ा

सांप्रदायिकता मिटाने के लिए
दल-समर्थित जाति का प्रतिनिधि खड़ा

एक चिड़िया ने तड़प कर यों कहा
हर समुंदर स्नान से इनके सड़ा

कब घड़ी होगी कि जब यह जनसभा
फोड़ देगी पाप का इनके घड़ा

(5)
किसी को भून डालें वे, हाथ में स्टेनगन लेकर
इन्हें क्या, मौत को ये तो, भुना लेंगे चुनावों में

गला जिनका तराशा है, निरंतर पाँच वर्षों तक
उन्हें भी अब गले अपने, लगा लेगे चुनावों में

कभी जिस गाँव को जाना न देखा, मर रहा कैसे
उसी के अब मसीहा बन, दिखा देंगे चुनावों में

देश टूटे, रहे, जाए, इन्हें क्या काम, इनको तो
सिर्फ कुर्सी दिला दीजे, दुआ देंगे चुनावों में

कब्र में पाँव लटके हैं, कंठ में प्राण हैं अटके
बहुत वोटर खरीदेंगे, जिता देंगे चुनावों में

खिलाड़ी मंच पर उतरे, मदारी मंच के पीछे
बहुत कीचड़ आँकड़ों की उछालेंगे चुनावों में

लगाकर घात बैठे हैं, पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों ही
बहुत चालाक मछुए ये, फँसा लेंगे चुनावों में

हमारे हाथ में मोहर, हमारे हाथ में मुहरा
दुरंगे लोकद्रोही को, सज़ा देंगे चुनावों में

(6)
अब भारत नया बनाएँगे, हम वंशज गाँधी के
पुस्तक-अख़बार जलाएँगे, हम वंशज गाँधी के

जनता की पीर हुई बासी, क्या मिलना गाकर भी
बस वंशावलियां गाएँगे, हम वंशज गाँधी के

बापू की बेटी बिकी अगर, इसमें हम क्या कर लें
कुछ नारे नए सुझाएँगे, हम वंशज गाँधी के

खाली हाथों से शंका है, अपराध न हो जाए
इन हाथों को कटवाएँगे, हम वंशज गाँधी के

रथ यात्रा ऊँची कुर्सी की, जब-जब भी निकलेगी
पैरों में बिछते जाएँगे, हम वंशज गाँधी के

(7)
मंच पर केवल छुरे हैं, या मुखौटे हैं
हो गए नाखून लंबे, हाथ छोटे हैं

वे भला कब बाज़ आए, खून पीने से
योजना छल-छद्म हिंसा, कर्म खोटे हैं

हम न समझौता करेंगे, चाकुओं से इन
देश की पसली अभी ये, चीर लौटे हैं

यों धमाके रोज़ घर में जो रहे होते
गिर पड़ेंगे ये बच्चे जो भीत ओटे हैं

हाथ मंत्रित शूल लेकर, यार ! निकलो अब
हर सड़क पर हर गली में, साँप लोटे हैं

(8)
माना कि भारतवर्ष यह, संयम की खान है
झंडे के बीच चक्र का, लेकिन निशान है

अब क्यों न फूल हाथ में तलवार थाम लें
जब तीर बन हवा चली, झोंका कमान है

पागल हुआ हाथी, इसे गोली से मार दें
यह राय बस मेरी नहीं, सबका बयान है

संसद बचा सकी नहीं, कुर्सी ने खा लिया
कितना निरीह देश का, यह संविधान है

उबला समुद्र शांति का, थामे न थमेगा
इसको न और आँच दो, किस ओर ध्यान है

(9)
नस्ल के युद्ध हैं
रंग के युद्ध हैं

युद्ध हैं जाति के
धर्म के युद्ध हैं

मेल को तोड़ते
भेद के युद्ध हैं

देश के तो नहीं
पेट के युद्ध हैं

लोक सेवा कहाँ ?
वोट के युद्ध हैं

जीतने जो हमें
सोच के युद्ध हैं

(10)
पाक सीमा पर बसे इक, गाँव में यह हाल देखा
षोडशी मणि को निगलता, साठवर्षी ब्याल देखा

जब कभी झाँका किसी के, सोच में, ऐसा लगा बस
सड़ रहीं मुर्दा मछलियाँ, एक गदला ताल देखा

भीड़ में बिजली गिराते, अग्निमय भाषण सुने औं'
धर्म के नारे उठाकर, कौन चलता चाल देखा

देश की जब बात आई, एक मोमिन ने बताया
"मैं पढ़ा परदेस में हूँ', साजिशों का जाल देखा

तस्करी की योजनाएँ, अस्त्रशस्त्रों का जख़ीरा
ये मिले जब रोशनी में, खोल करके खाल देखा

जो फ़सल में ज़हर भरती, उस हवा को चीर डालो
गीध खेती नोंचते हैं, द़ृश्य यह विकराल देखा

- डॉ. ऋषभदेव शर्मा